चित्र सौजन्य :(फ़्लिकर से)
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए,
साँझ की दुलहन बदन चुराए, चुपके से आए..
मेरे ख़यालों के आँगन में,
कोई सपनों के, दीप जलाए, दीप जलाए..
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए,
साँझ की दुलहन बदन चुराए, चुपके से आए..
कभी यूहीं जब हुईं बोझल साँसें,
भर आईं बैठे-बैठे, जब यूहीं आँख़ें..
तभी मचलके, प्यार से चलके,
छुए कोई मुझे, पर नज़र ना आए, नज़र ना आए..
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए..
साँझ की दुलहन बदन चुराए, चुपके से आए..
कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते,
कहीं पे निकल आएँ जनमों के नाते..
है मीठी उलझन, बैरी अपना मन,
अपना ही होके सहे, दर्द पराए, दर्द पराए..
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए..
साँझ की दुलहन बदन चुराए, चुपके से आए..
मेरे ख़यालों के आँगन में,
कोई सपनों के, दीप जलाए, दीप जलाए..
फिल्म : आनंद (1970)
गायक : मुकेश
मुझे यह गीत बहुत अच्छा लगता है, अक्सर जब कभी अकेला होता हूँ तो इसे सुनना पसन्द करता हूँ। कभी कभी यदि किसी सूर्यास्त के वक्त, समुंदर के किनारे टहलने जाता हूँ तो बेसाख्ता ही ये गीत गुनगुनाने लगता हूँ। आप भी इसे सुनिए, यदि आपको इसका वीडियो देखना है तो नीचे क्लिक करिए:
Leave a Reply to समीर लाल Cancel reply