जीवन की इस आपाधापी मे इंसान एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ मे लगा हुआ है। इस होड़, इस प्रतिस्पर्धा मे इंसान अपनी बुनियादी चीजों को भूल चुका है। मै भी कोई अपवाद नही हूँ, इस दौड़ मे मै भी शामिल हूँ, लेकिन साल मे एक महीना जब मै छुट्टियों पर होता हूँ, काफी दार्शनिक टाइप का हो जाता हूँ। इसे मेरा स्वार्थ कहें अथवा सहूलियत, इन छुट्टियों मे आत्म चिंतन का अच्छा मौका मिलता है। इस समय ना तो किसी प्रोजेक्ट की डैडलाइन का डर, ना कोर कमिटी की मीटिंग्स की बागडोर, ना स्टीयरिंग कमिटी के प्रजेन्टेशन की चिन्ता और ना ही प्रोजेक्ट बेसलाइन एलाइन करने की टेंशन । सारी टेंशन से मुक्ति के बाद सिर्फ़ एक ही काम होता है, ज्यादा से ज्यादा समय परिवार के साथ बिताया जाए। ज्यादा से ज्यादा (दर्शनशास्त्र सम्बंधित) पुस्तकें पढी जा सकें और अधिक से अधिक समय आत्मचिंतन किया जा सके।
आजकल मेरा प्रवास ऋषिकेश मे है (इस ब्लॉग पोस्ट के लिखे जाने तक), यहाँ के दयानंद आश्रम मे गंगा के किनारे बैठा हूँ । सामने ऊँचे ऊँचे पहाड़ों के सौंदर्य और नीचे बहती गंगा के तेज प्रवाह बहाव को देखने का मजा अलौकिक है। आसपास का वातावरण बहुत ही शान्त है सिवाय कलकल करती गंगा की बहती धारा की मधु्र ध्वनि । कुल मिलाकर माहौल अत्यंत ही लुभावना है, आत्मचिंतन के लिए एकदम सटीक। इस बहती धारा को देखकर लगता है कि हमारा जीवन भी कितनी तेजी से गुजरा जाता है। ये जीवन क्या है? क्या हमने कभी अपने आप से यह सवाल किया है? सुबह होती है, और हम एक अंधी दौड़ मे भाग लेने के लिए तैयार होते है, सुबह से शाम तक बस दौड़ते ही रहते है, रात होते ही दिन भर की थकान और टेंशन से नींद को बुलाने की कोशिश करते करते कब सुबह हो जाती है पता ही नही चलता। कभी अपने आप से सवाल करने का समय ही नही मिलता। कभी भी आत्म चिंतन नही करते। लेकिन मुझे लगता है कभी कभी एकांत मे बैठकर अपने मन के साथ मौन संवाद करके भी आत्मचिंतन से सम्बंधित ढेर सारे सवालों का जवाब पाया जा सकता है। यदि आपको समय मिले तो एकांत मे बैठकर अपने मन से पूछे कि मै कौन हूँ? जीवन क्या है? इस जीवन का क्या महत्व है?
जीवन क्या है?
क्या हमने कभी अपने आप से यह प्रश्न किया है? शायद हम सभी अपने आप से यह प्रश्न पूछने से डरते है, क्योंकि जिसे हम जीवन समझते है, इस प्रश्न के पूछने से वह और अस्त व्यस्त हो सकता है।हम पागलों की तरह धन, ख्याति इकट्ठे करते चले जा रहे है, लेकिन जब भी आत्मचिंतन का वक्त आता है, हम अपने आपको समझाते है, जल्दी क्या है, इस प्रश्न को हम बाद मे पूछ लेंगे। बचपन तो चलो चंचल होता है, अल्हड़पन भी किसी की नही सुनता, जवानी मे कोई सुध ही नही होती, बचा अधेड़ावस्था उसमे हम सवाल को टालते रहते है और बुढापे तक हम इस सवाल को पूछने की हिम्मत नही जुटा पाते। इस सवाल को जवाब हमे दूसरों से नही अपने आप से पूछना है।चलिए आप भी अपने आप से पूछिए, तब तक मै भी इस खूबसूरत नज़ारों को अपनी नजरों मे कैद करने की कोशिश करता हूँ।
( यदि आप लोगों ने टिप्पणियों के जरिए अपनी राय और प्रोत्साहन व्यक्त किया तो , इस चिंतन को आगे भी जारी रखेंगे )
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