हम भारत के राष्ट्रीय खेल को लेकर बहुत ही कन्फ़्यूजिया गया हूँ, हमे आज तक नही समझ मे आया कि हमारा राष्ट्रीय खेल हाँकी है, कबड्डी है, कुश्ती या क्रिकेट। क्योंकि क्रिकेट की संस्थाएं (बीसीसीआई/आईसीएल) आपस मे कबड्ड़ी खेलती है, अखबारों मे बयानो की जमकर कुश्ती लड़ी जाती है और जरुरत पड़ने पर एक दूसरे को मारने के लिए हाँकी भी उठा लेती है। अगर आप क्रिकेट मे शौंक रखते है तो हाल ही मे हुए बीसीसाई और आईसीएल (क्रिकेट को एक किनारे छोड़कर) रस्साकशी वाले खेल को देखने का अनुभव कर ही चुके होंगे। अब सबसे पहले तो जान ले कि ये दोनो है क्या आइटम। पूरी कहानी जानने के लिए यह जानना जरुरी है कि ये दोनो संस्थाएं करती क्या है और बेचती क्या है।
बीसीसीआई (अनाफिशयल साइट का लिंक)
जहाँ बीसीसीआई भारत मे एकमात्र ऐसा संगठन है नही बल्कि था जो क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेन्टों मे टीम इन्डिया को खेलने भेजता था। जहाँ भी क्रिकेट से कमाई की बात आती तो ये अपने आपको भारत के प्रतिनिधि कहते थे,सारा माल कमाते, बटोरते और हजम कर जाते। लेकिन जहाँ भी सरकार इनसे कुछ फ्री में मांगना चाहती(वैसे भी सरकार की ये आदत होती है) तो ये लोग फ़टाक से एक प्राइवेट क्लब मे बदल जाते। और तो और, न्यायालय मे दिए शपथपत्र (जो अब इनकी नाक की नकेल बन जाएगा) मे ये लोग चीख चीख कर कहते कि हम तो भारत का प्रतिनिधित्व ही नही करते, ना ही हम सरकार से जुड़े है, हम तो सिर्फ़ एक क्लब है जहाँ कुछ खिलाड़ी हमारे कर्मचारी है, और अपने कर्मचारियों को खेलने के लिए हम विदेशों मे भेजते है। ना तो हम भारत मे क्रिकेट के सारोकार से जुड़े है और ना ही हम खेल मंत्रालय के अधीन है। हालांकि हम इस क्षेत्र मे अकेले है लेकिन ये एकाधिकार नही है, बल्कि हम तो चाहते है कि ज्यादा से ज्यादा संस्थाएं इस खेल से जुड़े….वगैरहा वगैरहा।पूरा शपथ पत्र अगर आप पढे तो आप इनकी महानता के गुण गाने लग पड़ो, इसलिए हमने भी पूरा नही पढा।
आईसीएल
भारत के मीडिया जगत मे एक शख्स है सुभाष चंद्रा। ये भारत मे जी नैटवर्क चलाते है और भी बहुत सारे धन्धो मे इनका दखल है। ये अपने कामों से ज्यादा बीड़ी की वजह से चर्चा मे रहते है। क्यों? वो किसी और पोस्ट मे भई। लेकिन भाई इस पोस्ट मे इनका बखान करने नही बैठे, इसलिए वापस मुद्दे पर लौटा जाए। सुभाष चंद्रा जी का बीसीसाई से पंगा जगजाहिर है, पिछली बार इन्होने अपने चैनल के लिए, क्रिकेट टेलीकास्ट मे, बीसीसीआई के निविदा मे अर्जी दी थी, बहरहाल वो तो रद्द हो गयी, फिर जमकर कोर्ट कचहरी हुई (जिसमे बीसीसीआई को विशेष आनन्द आता है) फैसला आया या शायद नही, लेकिन सुभाष चंद्रा और उनके वकीलो ने बीसीसीआई द्वारा कोर्ट मे जमा किए गए शपथपत्र को ठीक से पढ लिया था, जिसमे साफ़ साफ़ लिखा था कि भारतीय क्रिकेट बीसीसीआई की बपौती नही। बस जी फिर क्या था, आनन फानन मे निर्णय लिया गया कि एक समानान्तर संस्था खड़ी की जाए। और आईसीएल का गठन हो गया। बीसीआई ने खिल्ली उड़ाई और आपसी मजाक मे बोले “ठाकुर ने ……. की फौज बनायी है” लेकिन ठाकुर कोई शोले का ठाकुर थोड़े ही था, वो तो सचमुच का ठाकुर था, ठोक दी नाक मे कील, कैसे? आगे पढो ना बाबू।
हल्ला काहे का?
आप कहेंगे कि दोनो खेलें ना, बिलावजह हल्ला काहे का? अमां यही तो पंगा है। अब ये लोग लड़्ते काहे है? इसलिए कि भैया भारत क्रिकेट का मक्का है, यहाँ खिलाडियों की पूजा (और जरुरत पड़ने पर मरम्मत) की जाती है। प्रशंसको का पता नही चलता कि कब माला उठा ले और कब जूता। पैसा इत्ता है कि बड़े बड़े राजनीतिज्ञ इस संस्था के सर्वोच्च पद को पाने के लिए लार टपकाते रहते है। पैसा कैसे? अरे भाई सबसे पहले तो क्रिकेट मैचों के अधिकार, टीवी के अधिकार, खिलाड़ियों के ड्रेस के अधिकार, जूतो के…, इल्ली,किल्ली,पिल्ली और जाने क्या क्या चीजो के अधिकार। फिर जित्ते भी मैच होते है उनसे होने वाली कमाई और भी बहुत सारे कमाई के साधन है। अब ये संस्था करती क्या है? विदेशी मे भारत का प्रतिनिधित्व, आईसीसी से लफ़ड़े-झगड़े, देश मे लधर पधर क्रिकेट स्टेडियों का रखरखाव, अपनी संस्था का जुतमपैजारी चुनाव और बाकी बचे समय मे आपस के सदस्यों मे पंगेबाजी होती रहती है। पंगेबाजी इनका सबसे पसंदीदा शगल है।
खैर पथ से मत भटका जाए, पंगेबाजी का शगल पूरा करने के लिए सॉरी सार्वजनिक रुप से बोला जाए तो “भारत मे क्रिकेट को बढावा देने के लिए” सुभाष चंद्रा ने भी टीम इकट्ठा की और बोले हम भी खेलेंगे। बीसीसीआई बोली खेलोगे तो तब ना, जब हम खेलने देंगे। खिलाड़ियों को खेलने ही नही देंगे। चंद्रा साहब ने रिटायर्ड सिपाहियों की फौज बनायी और नयी भर्ती भी शुरु की। सबको पैसा दिखाया गया, कई लोग लपक लिए, अच्छे खासे नाम सामने आए। फिर दिन आया शक्ति परीक्षण का। उसमे बड़े बड़े नाम देखकर बीसीसीआई की नींद उड़ गयी। तुरन्त मीटिंग की गयी, आनन फानन मे आदेश जारी किए गए, कि अगर कोई भी खिलाड़ी आईसीएल की सीटी बजाते पाया गया तो उसकी वर्दी उतरवा दी जाएगी। खिलाड़ी भी मस्त, वे भी अभी चुप है, सोच रहे है, जो ज्यादा रुप्पल्ली खर्च करेगा उसी की सीटी बजाएंगे। बकिया कुछ हो ना हो, आईसीएल के आने से क्रिकेट का भला जरुर हो गया। कैसे? अरे अगर किसी खिलाड़ी को टीम मे नही लोगे तो वो नाराज हो जाएगा (जाहिर है, ११ खिलाडियों की टीम है, १११ तो खिलाओगे नही) फिर नाराज हो जाएगा तो वो आईसीएल की सीटी बजाकर ही मस्त होगा ना।
अब खिलाडियों का जैसे तैसे प्रबन्ध तो हो गया, अब मैदान कहाँ से आएं? जवाब हाजिर था, लालू प्रसाद यादव एक ऐसे जीव है कि आपके साथ चाय पीते पीते हुए मूड मे आया तो कप की आखिरी चाय आप पर उड़ेल कर दूसरे होटल के लिए निकल पड़ेंगे। अब है क्या कि बिहार लीग के अध्यक्ष लालू को बीसीसीआई ने मान्यता नही दे रखी थी, सो अब बीसीसीआई से अंदरुनी तौर पर खफ़ा लालू ने अपना गुस्सा निकला और आईसीएल को रेलवे के स्टेडियम प्रयोग करने की इजाजत दी। अब बीसीसीआई के हाथ पाँव फूल गए है। अब सुना है कि आईसीएल वाले बीसीसीआई को नाको चने चबाने वाले पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को साधने मे लगी हुई है, अगर ऐसा हो गया तो बीसीसीआई की मिट्टी पलीत होना तय है। लेकिन अभी ऐसी कोई प्रक्रिया मे सबसे बड़ी बाधा सुभाष चंद्रा और जगमोहन डालमिया के खटास हुए रिश्ते ही है, लेकिन लगता है अपने कामन दुश्मन को हराने के लिए ये दोनो एक दूसरे से आज नही कल हाथ मिला ही लेंगे। फिर इस खेल का असली मजा आएगा।
इधर खिलाड़ी तो बस मौके का इन्तज़ार कर रहे है कि इधर से कमाई खत्म हो तो उधर के दरवाजे पर दस्तक दी जाए। कुछ भी हो, मजा बहुत आ रहा है। इसी तरह से आपस मे लड़ लड़ कर ये लोग शायद जाने अनजाने ही सही, भारतीय क्रिकेट का भी भला कर दें।
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