अक्षरग्राम अनुगूँजः नवाँ आयोजन
आशा ही जीवन है
सबसे पहले तो मै देर से लिखने के लिये क्षमा चाहता हूँ, दरअसल आजकल मै कुछ ज्यादा ही व्यस्त हूँ, इसलिये लिखने के लिये समय नही निकाल पा रहा हूँ. फिर भी अनुगूँज का आयोजन हो और मेरी प्रविष्टि ना आये, ऐसा मुश्किल है.
मै बहुत ही आशावादी इन्सान हूँ, जिन्दगी मे ना जाने कितने मोड़ आये, ना जाने कितनी परेशानियाँ आयी, अपनो ने साथ छोड़ा, नाते रिश्तेदारों ने भी दुश्मनो सा व्यवहार किया, नही छूटी तो आशा की किरण, जो विश्वास बनकर सदा मेरे साथ रही. हर रात की सुबह होती है, और हर परेशानी के बाद सफलता का उजाला होता है.अब मै यहाँ पर आपको अपनी जीवनी नही सुनाने वाला, बस ये बताना चाहता हूँ कि मैथली शरण गुप्त जी की यह कविता कभी स्कूल मे पढी थी, सदा मेरे साथ रही, आप भी सुनिये
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो ।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो ।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।।संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना ।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहां
फिर जा सकता वह सत्त्व कहां
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो ।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे ।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
-मैथली शरण गुप्त जी
एक बार फिर मै यही कहना चाहूँगा कि निराशा के सागर मे उतरने से कुछ हासिल नही होता, हिम्मते मर्दां मदद ए खुदा. मै फिर माफी चाहूँगा कि मै ज्यादा कुछ नही लिख सका, आशा है अनुनाद भाई मेरी परेशानी समझेंगे और मुझे माफ करेंगे. अन्त करना चाहूँगा, आई आई टी कानपुर के भाई गौरव गुप्ता की एक कविता से
आशा है , पाषाण-हृदय से ,
कोपल फूटेंगी ।
आरोहित हो हृदय-मध्य-सीमाओं ,
को तोड़ेगीं ।
मानव को मानव से एक दिन ,
जोड़ेगी ।
लेकिन कब , जब यह क्षुद्रता ,
स्वार्थ को छोड़ेगी ।
हृदय निनादित होगा सबका ।
जगत-वृक्ष पल्लवित होगा मन का ।।
यज्ञ सफल होगा मानवता का ।
आशा है ,सभी दिशाओं में सूर्योदय होगा ।।
– गौरव गुप्ता
Leave a Reply