बात कई साल पहले कि है, तब मै दिल्ली मे काम करता था, मै रोड द्वारा चन्डीगढ से दिल्ली आ रहा था, मेरे साथ मे मेरी कम्पनी का इन्डिया आपरेशन्स मैनेजर विर्क भी था, विर्क जर्मन मे बसा सरदार था, और इन्डिया व्यापारिक विजिट पर आया था.हम लोग किसी मीटिंग से लौट रहे थे, और रास्ते मे जब बीयर खत्म हो गयी तो किसी जगह, शायद कुरुक्षेत्र मे रुके. शराब की दुकान के बाहर एक बूढा सा सरदार दिखा, वो आकर गाड़ी साफ करने लगा, और आकर ठेठ पंजाबी मे बोला “मेरे को पचास रुपये दो”
हालांकि मै कभी भी भिखारियों को पैसे नही देता, ना जाने क्यों उसकी आंखो मे मुझे कुछ अजीब सी चमक दिखी, वो बड़े ही सम्मान और कान्फीडेन्स के साथ और बिना किसी बेचारगी या लाग लपेट के साथ पैसे मांग रहा था.मै कुछ पूछने ही वाला था कि विर्क बोल पड़ा “क्या करोंगे पचास रूपये का, कहो तो खाना खिला दूँ?” सारी बातचीत ठेठ गाँव की पंजाबी मे हो रही थी, इसलिये आधी बात मेरे ऊपर से निकल रही थी.
बूढे ने कहाँ, “मै पचास रूपये से दारू खरीदूंगा और अगर पैसे बच गये तो खाना भी खा लूँगा, अगर आपको विश्वास ना हो तो , आप चाहें दारू खरीद दीजिये, खाने का जुगाड़ मै खुद कर लूँगा.”
विर्क ने बिना कुछ सोचे समझे उसको पचास का नोट पकड़ाया और बोला ये तो रहे खाने के और साथ ही उसने दारू की एक हाफ बोतल खरीद के दी.
बूढे सरदार ने बड़े ही सम्मान के साथ, विर्क का पचास का नोट वापस किया और बोला, खाना मै घर जाकर खा लूँगा, और दारू के लिये धन्यवाद,कहकर, बोतल लेकर चला गया.
बाद मे विर्क ने मेरे को पूरी बात सरल पंजाबी मे समझायी, और उसने अपना स्पष्टीकरण दिया कि मैने उसको पैसे और दारू इसलिये लेकर दी क्योंकि वो बहुत स्पष्टवादी था, उसने झूठ नही बोला, साफ साफ बताया कि दारू की तलब लगी है, वो बूढा सरदार, मजबूर सही, लेकिन आत्मसम्मानी था, जिसने पचास रूपये वापस करके अपने आत्मसम्मान को बनाये रखा.
आज भी जब कभी स्पष्टवादिता और साफगोई की कोई बात याद आती है तो मुझे वो बूढा सरदार याद आ जाता है.
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