अनुगूँज पाँचवा आयोजन
कहते है प्यार किया नही जाता हो जाता है.प्यार एक खूबसूरत जज्बा है, जिसका सिर्फ एहसास किया जा सकता है, शब्दो मे बयान करना शायद सम्भव नही होगा, फिर भी मै कोशिश करता हूँ, अपनी बात कहने की.इसके पहले एक डिसक्लेमर “मै अपनी मौजूदा जिन्दगी से बहुत खुश हूँ और पहले प्यार की बात सुनकर कोई मेरे ऊपर जूता चप्पल ना उठावे, यहाँ पर पिछली बाते हो रही है, इसलिये इसको एक संस्मरण की तरह ही लिया जाय,दिल से ना लगाया जाय”
बस इक झिझक है यही हाल ए दिल सुनाने मे
तेरा भी जिक्र आयेगा इस फसाने मे.
बात उन दिनो की है जब मै नवीं क्लास मे पढता था. पढाई मे मै काफी अव्वल था.हमारे घर मे ज्यादा जगह ना होने की वजह से मैने पढाई के लिये छत पर डेरा डाला, लगभग सारा समय छत पर ही गुजरता था. हमारे घर के सामने वाले मकान मे एक जैन परिवार ने आकर रहना शुरु किया.जिनकी सबसे बड़ी लड़की भी हाईस्कूल मे पढती थी. हम दोनो के कालेज अलग अलग थे,अलबत्ता कुछ सब्जेक्ट कामन थे.उनके घरवालो ने जब मेरे को देखा कि काफी पढाकू हूँ और अपनी बेटी को भी मेरे से कुछ सीखने की प्रेरणा देने के लिये एक दिन उन्होने मेरे को अपने घर बुलवाया और अपनी बेटी “??? जैन” से मिलवाया. मैने भी शरमाते हुए उससे बात की. फिर बातें शुरु हो गयी पढाई की. जैन अंकल ने मुझसे अपनी बेटी की हैल्प करने के लिये कहा, जो कुछ विषयों,खासकर अंग्रेजी मे कमजोर थी, मैने सकुचाते हुए स्वीकार कर लिया.हफ्ते मे एक या दो दिन मिलने का समय तय हुआ. कभी मै उनके घर चला जाता था, कभी वो मेरी घर या कहो छत पर आ जाती थी. कभी भी हमने पढाई के अलावा कोई बात नही की. और ऐसा कोई आकर्षण भी नही था, एक दूसरे के प्रति. उसके घरवालो ने भी उसको छत पर एक शैड डलवाकर दी, ताकि वो भी इत्मीनान से अपनी पढाई कर सके. वो अपनी छत पर पढती और मै अपनी छत पर.बस कभी नजरे मिली तो एक दूसरे को देखकर मुस्करा दिये बस.
वैसे तो मै काफी बढबोला और खुराफाती किस्म का बन्दा था, लेकिन ना जाने क्यो उसके सामने मेरा सारा बढबोलापन गायब हो जाता था, मुँह से कोई बोल ही नही फूटता था,सिवाय पढाई की बातों के,धीरे धीरे हमने पढाई के अलावा दूसरी बाते भी करना शुरु कर दी, लेकिन कभी भी रूमानियत वाली बातें नही की.उसकी किस्मत कहो या मेहनत,उसके काफी अच्छे नम्बर आये, उसके घरवाले खुश थे, कि मेरी मदद से उनकी लड़की मे इम्प्रूवमेन्ट आ रहा है.धीरे धीरे हम दोनो का एक दूसरे के घर आना जाना शुरु हो गया. अब हम काफी घुलमिल गये थे, और हर तरह की बाते करने लगे थे.वो हमेशा मेरी तारीफ किया करती, और बोलती कि मेरे को बहुत तरक्की करनी है, वगैरहा वगैरहा.मै लड़कियों की तरह शरमाते हुए उसकी बातें सुनता, मेरे को कोई जवाब नही सूझता. अक्सर वो मेरे से वह कुछ ऐसा मजाक करती कि मै उसका जवाब ना दे पाता. धीरे धीरे मेरे को उसकी बाते अच्छी लगने लगी….और मुझे उसका इन्तजार रहने लगा, जब कभी वो ना आती तो, मेरा दिल बैचेन होने लगा, अक्सर मुझे ख्यालो मे उसका चेहरा दिखायी देता और मै मन ही मन मुस्करा देता.अब मेरे को नही पता था कि उस तरफ क्या हाल है, और जानने की कोशिश भी नही की. क्योंकि पहली प्राथमिकता तो हाईस्कूल पार करने की थी. हम दोनो ही अच्छे परसेन्टेज से पास हुए. अब दो महीने की गर्मियों की छुट्टियाँ थी. मै अपने ननिहाल ग्वालियर चला गया और वो अपने ननिहाल खन्डवा, हमारे परिवार मे पहाड़ो पर जाने का रिवाज नही था, सो गर्मियां शुरु होते ही मेरे को ननिहाल के लिये लदवा दिया जाता था. ग्वालियर मे मैने उसको बहुत मिस किया, और कहते है जुदाई मे प्यार और परवान चढता है, किसी तरह से छुट्टियाँ काटी, वापस लौटा
यहाँ तो वो पहले से ही मेरा इन्तजार कर रही थी,हमने दिल की हालत एक दूसरे से की और अपने प्यार का इजहार किया.दिल तो बल्लियों उछलने लगा, कलेजा मुँह को आने लगा, ना जाने क्यों बाते करते करते गला सूखने लगता, किसी चीज मे मन नही लगता, पढाई और कोर्स तो बहुत दूर की बात थी.दूसरी तरफ भी हालात लगभग वही थे, लेकिन अब एक दूसरे से मिलने मे शर्म आती थी, बाते करने के लिये बाते ही नही होती थी, बस लगता था, वो मेरे पास बैठी रहे और मै उसे देखता रहूँ.हमेशा उसका ख्याल, हमेशा उसकी याद. खाना पीना लगभग छूट गया था. बिना उसको देखे दिन शुरु नही होता था, बिना उसको बाय किये रात खत्म नही होती थी, वो भी जब मौका मिलता अपनी छत पर आ जाती और मै अपनी छत पर, हमने इशारो मे बात करने की कला विकसित कर ली थी, आंखो ही आँखो मे एक दूसरे के दिल की बात समझ लेते थे.कुल मिलाकर एक अच्छे खासे पढाकू बन्दे का काम लग गया था.हम दोनो के धर्म तो हिन्दू थे लेकिन काफी विरोधाभास थे, सो हमने भी जैन धर्म को जानने के लिये काफी किताबे पढ डाली और खान पान मे भी परिवर्तन कर डाला, उधर हमारी प्रेयसी ने भी अपने खानपान यानि कि पूर्ण शाकाहारी से मांसाहारी बनने का प्रयास किया, जो असफल साबित हुआ, बस जज्बा सिर्फ यह था, एक दूसरे के लिये कुछ भी करने को तैयार थे.
लेकिन बैरी जमाना, जब उसको पता चला तो हमारे ऊपर बन्दिशे लगनी शुरु हो गयी, मेल मुलाकात तो दूर की बात है दर्शन दुर्लभ हो गये, फिर हमने चिट्ठी पत्री का सहारा लिया, काफी लैटरबाजी हुई, किसी तरह से मुलाकात हुई, रिश्ते के बारे मे गम्भीरता से सोचा गया, और हर तरह के नतीजो पर विचार विमर्श किया गया.मन मे एक साथ आत्महत्या का भी ख्याल आया, परेशानी यह थी वो अपने घर मे सबसे बड़ी थी और मै अपने घर मे सबसे छोटा था.उनको अपने भविष्य की कम और अपनी बहनो के भविष्य की चिन्ता ज्यादा थी. फिर उन्होने एकतरफा हिटलरी डिसीजन लिया कि अब हम नही मिलेंगे.हम बहुत कहते रहे फिर सोच लो….अब वैसे भी मेरी उनके सामने कुछ चलती तो थी नही. वो मेरी पूरी बात सुने बिना चली गयी……किसी तरह से हमारी एक आखिरी मुलाकात तय हुई.
इस आखिरी मुलाकात मे उन्होने मेरे को पहली बार अपना हाथ पकड़ने की इजाजत दी, रोते रोते अपनी बात कही और अपनी मजबूरी बतायी. और हम दोनो लगभग आधा घन्टा रोते रहे और जाते जाते ये वादा किया गया कि अगर कभी जिन्दगी मे दुबारा मुलाकात होगी तो अच्छे दोस्तो की तरह मिलेंगे.कोई गिला शिकवा नही करेंगे. और जाते जाते वो कुछ ऐसा कह गयी कि आज तक नही भूल पायाःवो बोली “अगर कभी मैने प्यार किया है तो वो तुमसे है, मै तुमको कभी भूल नही पाउंगी, और मेरी बस एक ही ख्वाहिश है कि मै तुम्हे सफलता की नित नयी ऊँचाइयो पर देखना चाहती हूँ.”
साथ ही निशानी के तौर पर एक आखिरी पत्र पकड़ाया,जिसका सिर्फ दो एक शेर ही बता पाऊँगा, नोश फरमाये.
पत्र की शुरूवात इस शेर से हुई थी
मेरे दिल मे तू ही तू है, दिल की दवा क्या करू
दिल भी तू है, जाँ भी तू है तुझपे फिदा क्या करूँ
और पत्र का आखिरी शेर ये था………………
अबकी बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबो मे मिले,
जैसे सूखे हुए फूल किताबो मे मिले.
आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातो पर,
क्या अजब कल वो जमाने को निसाबों मे मिले
काफी सालो बाद पता चला कि उनकी शादी रतलाम मे कंही हो गयी है, इधर हम भी अपनी जिन्दगी मे वापस हो लिये. पहले प्यार का दर्दनाक अन्त.मै अपनी सफलता का श्रेय उसके प्रोत्साहन को देता हूँ.अगर वो प्रोत्साहित ना करती तो शायद मै आज इस मकाम पर नही पहुँच पाता.मैने उसको भुलाने की बहुत कोशिश की लेकिन कमबख्त दिल है कि मानता नही,जब कभी पहले प्यार की बात निकलती है तो उसकी शक्ल सामने आ ही जाती है,आँखो को झूठ बोलना नही आता और आंसू………वो तो शायद उसके जिक्र होने का ही इन्तजार करते है.
फिर सावन रुत की पवन चली,तुम याद आये, तुम याद आये.
फिर पत्तो की पाजेब बजी, तुम याद आये, तुम याद आये.
मेरा यह लेख समर्पित है, उस अनाम प्यार को, एक पवित्र रिश्ते को, जो अधूरा रह गया.
मैने तो ईमानदारी से अपने पहले प्यार की कहानी कह दी है…., अब जूते पड़ते है तो पड़े.
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