आखिरकार मिर्जा का इन्तजार खत्म हुआ, महाराष्ट्र चुनाव की आखिरी सीट के परिणाम आने तक मिर्जा ना तो खाना खा रहे थे और ना ही टीवी के आगे से हट रहे थे… छुट्टन मिंया जो अभी अभी नयी फिल्मो की डीवीडी ले आये थे.. बड़े परेशान थे.. गलती से मिर्जा के सामने ही बोल पड़े, लानत पड़े महाराष्ट्र इलेक्शन वालों पर… तब मेरे को याद है, मिर्जा ने तकिया फेंक कर मारा था.. छुट्टन मियां तो झुक गये…..और तकिया मेरी चाय पड़ गिर पड़ा था….सारे कपड़े खराब हो गये थे…छुट्टन मिंया ने धोने डाले है…और मै तौलिये मे ही खड़ा हुआ मिर्जा की चुनाव चर्चा झेल रहा हूँ, इसको बोलते है, मजबूर श्रोता.. तौलिये मे तो मै भाग भी नही सकता… अब जब मै भी झेल रहा हूँ तो आप भी सुनिये, महाराष्ट्र के चुनाव विश्लेषण, मिर्जा साहब की जबानी…., इसके पहले आपको राज्य के चुनाव नतीजे बता दें,
टोटल सीटः288
कांग्रेसः69 , राकांपाः71 आपीआई-एः01 Total : 139
शिवसेनाः62 बीजेपीः54 एसटीबीपीः01 Total : 119
अन्यः30(जिसमे सीपीआई की तीन सीटे शामिल है.)
देखो मिंया मै तो पहले ही कहता था.. ये दिन प्रमोद महाजन के लिये बहुत ही परेशानी भरे है..अब वही हुआ..अब झेलो… लोकसभा मे बीजेपी का कून्डा बिठवा दिया था, वो कम था कि महाराष्ट्र की कमान भी उसके हाथ मे दे दी..खैर जो होना था तो सो हुआ, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के खेमों मे तो जशन का माहौल है, बस शिवसेना और बीजेपी मे मायूसी छाई है.इतना अच्छा मौका था, बीजेपी के लिये वापसी का, लेकिन कोई फायदा नही, शिन्दे की सरकार, जिसने पांच साल मे कोई भी काम नही किया, वो भी जीत गयी. कोई समझ नही पा रहा है कि गलती हुई कहाँ…
दरअसल शिवसेना वाले अपनी बात लोगो को ठीक से समझा नही सके…लोगो मे शिवसेना के प्रति कुछ गुस्सा था, वही मी मुम्बइकर अभियान को लेकर, लेकिन वो गुस्सा मुम्बई तक सीमित था.. जमीन पर कार्यकर्ताओ को समझ मे नही आ रहा था कि शिवसेना जो काडर वाली पार्टी है उसमे भी पद को लेकर खींचतान शुरू हो गयी थी, राज ठाकरे,मनोहर जोशी और उद्दव ठाकरे तीनो इस हार के लिये जिम्मेदार है.अभी छीछड़े मिले नही, बिल्लियो मे पहले से लड़ाई होने लगी. बाला साहब ठाकरे का चुनाव प्रचार मे देर से उतरना भी प्रमुख कारण है, उनके अपशब्दो का प्रयोग और मराठा कार्ड का फेल होना भी ध्यान देने योग्य कारण है.शिवसेना को पहले अपना घर सुधारना चाहिये था और राज्य के मुद्दे ज्यादा गम्भीरता और समझदारी से उठाने चाहिये थे…उद्दव ठाकरे की नेतृत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहे है.
दूसरी तरफ बीजेपी का पूरा चुनाव अभियान ही दिशाहीन था.कभी तिरन्गा, कभी सावरकर, कभी विदेशी मूल,जो गलती उन्होने लोकसभा चुनावो मे की थी, वही दोहरायी गयी.मुद्दे कई उठाये लेकिन जोर किसी भी एक पर जोर नही दे सके.बीजेपी को यह बात समझ लेनी चाहिये कि लोग अब विकास सम्बधित मुद्दो की बात करना चाहते है, इधर उधर की बात करने से कुछ नही होगा….वैसे भी राज्यो के विधानसभा के चुनावो मे राष्ट्रीय मुद्दो का रोल सीमित ही होता है. भाजपा अपने प्रमुख मुद्दो पर ध्यान केन्द्रित नही कर सकी.इसके अलावा बीजेपी को सोनिया के विदेशी मूल वाले मुद्दे को छोड़ना होगा, इसका उल्टा असर हो रहा है.किसानो की आत्महत्या का मामला, जिसके बूते कांग्रेस आन्ध्रप्रदेश मे सत्ता मे आ सकी थी.. बीजेपी महाराष्ट्र मे इसे नही भुना सकी, इसके अलावा हिन्दू वोटो का बँटना, मुस्लिम वोटो का एकजुट होना भी हार का प्रमुख कारण रहे.बीजेपी को अपने चुनाव प्रचार मे संसाधन ठीक से इस्तेमाल करने चाहिये थे और रणनीति पर चिन्तन करना प्राथिमिकता होनी चाहिये.और प्रमोद महाजन का हाल…….. बताने की जरूरत है क्या?
कांग्रेस के लिये यह नतीजे देखने मे भले ही अच्छे लगे, लेकिन कांग्रेस को इन नतीजो पर खुश नही होना चाहिये, बल्कि चिन्तन करना चाहिये कि महाराष्ट्र जैसी जगह पर भी, वह छोटी पार्टी की तरह सिमट गयी है, उसकी निर्भरता दूसरे दलों पर बढ गयी है, जो कतई अच्छी खबर नही है, कंही यहाँ पर भी यूपी वाला हाल ना हो जाये.वैसे कांग्रेस के लिये यह अन्धे के हाथ बटेर लगने वाली बात है, कांग्रेस मे किसी ने भी नही सोचा था कि दुबारा सत्ता मे लौटेंगे.सुशील कुमार शिन्दे तो लगभग अपना बोरिया बिस्तर समेट चुके थे.दूसरी तरफ विदर्भ के मुद्दे ने भी कांग्रेस को पशोपेश मे डाल रखा था.कांग्रेस के लिये बस एक ही अच्छी खबर है कि सोनिया की स्वीकार्यता और लोकप्रियता बढ रही है, लोग अब सोनिया को परिपक्व राजनीतिज्ञ मानने लगे है.लेकिन यह लोकप्रियता वोटो मे तब्दील नही हो पा रही है, जिसके लिये अभी काफी मेहनत करने की जरूरत है.
सबसे ज्यादा फायदे मे रहे शरद पवार और उनकी पार्टी, जो सबसे बड़ी पार्टी बन के उभरी है, इसके अलावा राकांपा का वोट प्रतिशत बढा है जो काफी अच्छी खबर है.चुनाव के ठीक पहले रूई किसानो और गन्ना किसानो के लिये पैकेज का ऐलान करवाकर, पंवार हीरो बन गये थे… ऊपर से पंवार की लोकप्रियता और बढ गयी जब उन्होने मुख्यमंत्री पद को कांग्रेस को देने का ऐलान किया, जबकि शिवसेना मे मुख्यमंत्री पद के लिये छीना छपटी हो रही थी. इसे पंवार का त्याग माना गया और जनता मे सहानूभूति हासिल की गयी.हालांकि नतीजे आने तक पंवार की मुख्यमंत्री पद वाले त्याग की पोल खुलने लगी, लेकिन अन्ततः कोई ना कोई सौदा हो जायेगा, जो पंवार के लिये काफी फायदेमन्द रहेगा.
अब अगर मायावती की बात ना करे तो उचित नही होगा.. इसने ना जाने क्या सोंच कर अपने सारे उम्मीदवार उतार दिये,, अगर उतार दिये तो कम से कम उनको ठीक तरीके से सपोर्ट तो करती.. जो कुछ वोट मिले है, वो सब उम्मीदवारो के अपने बूते मिले है, बसपा का इसमे कोई रोल नही है.उधर मुलायम सिंह जो इस खुशफहमी मे थे कि यूपी के बाहर भी वो एक बड़ी ताकत है, उनकी भी हवा निकल गयी, अब बिहार चुनाव मे उतरने से पहले फिर सोचना होगा. मायावती और मुलायम दोनो एकदूसरे के लिये खुश होगे कि दोनो को एक भी सीट नही मिली.
अब कांग्रेस और राकांपा गठबंधन को पहले राज्य की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को सुधारना होगा और विकास के काम को गम्भीरतापूर्वक आगे बढाना होगा.लोगो के जानादेश का सम्मान करते हुए, राज्य को फिर नम्बर वन बनाना होगा.
अब तक मेरे कपड़े सूख चुके थे… इसलिये मैने पतली गली से निकलना उचित समझा…….लोकसभा उपचुनावो की बात फिर कभी.
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