सपने, संताप और सवाल

राजेश प्रियदर्शी का यह लेख मुझे बहुत पसन्द आयाः यह लेख वैसे तो यूरोप मे रह रहे अप्रवासी भारतीयो के लिये लिखा गया है, लेकिन सभी पर लागू होता है.

सपने
अच्छी नौकरी, पाउंड को रूपए में बदलें तो डेढ़ लाख रूपए के क़रीब तनख़्वाह. लंदन शहर की ख़ूबसूरती, यूरोप घूमने के मज़े.
धूल नहीं, मच्छर नहीं, सभ्य-सुसंस्कृत लोग. चौकस पुलिस, आसान ट्रैफ़िक, हफ़्ते में दो दिन पक्की छुट्टी, आठ घंटे काम, बेहतर माहौल.
चार साल रहने के बाद ब्रिटेन में रहने का पक्का इंतज़ाम, अपनी गाड़ी, अपना घर और एनआरआई स्टेटस.
देश में इज़्ज़त बढ़ेगी, भाई-बंधुओं को भी धीरे-धीरे लाया जा सकता है, अगर कभी लौटे बेहतर नौकरी मिलना तय है.
पानी, बिजली, फ़ोन का बिल भरने के लिए लाइन में लगने की ज़रूरत नहीं, भ्रष्टाचार और संकीर्ण दिमाग़ वाले लोगों से मुक्ति.

संताप
आज तक किसी अँगरेज़ ने दोस्त नहीं माना, किसी ने घर नहीं बुलाया, हैलो, हाउ आर यू, सी यू के आगे बात न कोई करता है, न सुनता है. मुसीबत पड़ने पर पड़ोसी भी काम नहीं आता.
हर साल भारत जाना मुश्किल है, प्लेन का किराया कितना ज़्यादा है, माँ बीमार है. फ़ोन का बिल भी बहुत आता है.
लोग चमड़ी का रंग देखकर बर्ताव करते हैं, शरणार्थी समझते हैं, बीमार पड़ने पर डॉक्टर बीस दिन बाद का अप्वाइंटमेंट देता है और मरने पर फ्यूनरल दो हफ्ते बाद होता है.
रोज़ बर्तन धोना पड़ता है, हर संडे को वैक्युम क्लीनर चलाना पड़ता है, नौकर और ड्राइवर तो भूल ही जाओ.
मँहगाई कितनी है, कुछ बचता ही नहीं है, कोई चीज़ ख़राब हो जाए तो मरम्मत भी नहीं होती, सीधे फेंकना पड़ता है, प्लंबर पत्रकार से ज़्यादा कमाता है. आधी कमाई टैक्स में जाती है.
बच्चों के बिगड़ने का भारी ख़तरा, ड्रग्स, पोर्नोगार्फ़ी. बच्चे अपनी भाषा नहीं बोलते, ख़ुद को अँगरेज़ समझते हैं. चार अक्षर वाली गाली देते हैं जो ‘एफ़’ से शुरू होकर ‘के’ पर ख़त्म होती है.
ऐसा क्या है जो भारत में नहीं मिलता, गोलगप्पे और रसगुल्ले खाए बरसों बीत गए. धनिया पत्ता और हरी मिर्ची के लिए भटकना पड़ता है.
त्यौहार आते हैं और चले जाते हैं, पता तक नहीं चलता, पूजा कराने के लिए पंडित नहीं मिलता. गोबर, केले और आम के पत्ते के बिना भी कहीं पूजा होती, फ्लैट में हवन करो तो फायर अलार्म बज जाए.

सवाल

क्या कभी भारत लौट पाएँगे, क्या बच्चे वहाँ एडजस्ट करेंगे, हमें कहीं बहुत सुख सुविधा की आदत तो नहीं पड़ गई?

मैं तो चला जाऊँगा, घर के बाक़ी लोगों को कैसे मनाऊँगा, बसा-बसाया घर उजाड़ना कहीं ग़लत फैसला तो नहीं?

जीवन सुरक्षित नहीं, भ्रष्टाचार बहुत है, दंगे भड़कते रहते हैं, आदत छूट गई है, कैसे झेलेंगे यह सब?

लोग पहले बहुत मदद करते थे, दिल्ली, मुंबई का जीवन अब कुछ कम व्यस्त तो नहीं, लोग पहले जैसे कहाँ रहे?

दिक्क़तें यहाँ भी हैं, वहाँ भी, चलो जहाँ हैं वहीं ठीक हैं, फिर कभी सोचेंगे

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