एक जरुरी डिस्क्लेमर
इस ब्लॉग को पढकर कोई भी हमारे घर फोन नही करेगा, अपना देवर धर्म निभाने के लिये, नही तो समझ लेना हमसे बुरा कोई नही होगा।तो भैया, अब बात करते हैं छत की, वैसे भी शुकुल बहुत दिनों से डन्डा किए थे, छत की कहानी लिख दो,लिख दो।अब का करें, शुकुल सहित पूरा ब्लॉग बिरादरी ही छतों के बारे मे लिख लिख कर परेशान कर रही है तो हम भी सोचे कि काहे ना हम भी छत की यादें ताजा कर लें।आप ये ना समझियेगा कि दूसरों को छत के बारे मे लिखते देख देख कर हमे भी छूत ओह..सॉरी सॉरी छत का रोग लग लगा। वैसे देखा जाय तो ब्लॉगिंग भी छूत के रोग की तरह है, जब तक दूसरा ब्लॉगर ना लिखे, तब तक लिखने का साला मन ही नही करता। खैर तो हम कह रहे थे, छत की यादें। इस लेख को पढने से पहले आप हमारे पहले प्यार का किस्सा जरुर पढ लीजिएगा, नही तो आपको पूरा पूरा समझ मे नही आयेगा।
तो जनाब छत को दो यादें है, एक तो है पतंगबाजी की और दूसरा प्यार भरी कुछ यादें। तो बताइये पहले कौन सी सुनना पसन्द करेंगे? क्या कहा? प्यार वाली, हमको तो पहले ही पता था, आप लोग बहुत सैतान हो गये है।चटपटी सुनना ज्यादा पसन्द है आपको, क्यों? तो जनाब सुनिये प्यार मोहब्बत वाली बातें, पतंगबाजी वाली बाते किसी और दिन करेंगे।बात उन दिनो की है जब हमारा पहला प्यार चल रहा था, उनसे।किनसे? (ये सवाल दोबारा मत पूछना शुकुल, रवि रतलामी जी अभी तक पूरे रतलाम में ढूंढ नही सके है उसे), अक्सर वो समय मिलते ही अपनी छत पर आ जाया करती, हम तो अपनी छत पर पहले से ही डेरा डाले हुए पड़े थे।हम दोनों की छते आपस मे मिली नही हुई थी(ये प्वाइन्ट नोट किया जाए), बीच मे एक छोटी सी गली हुआ करती थी, आज भी मै कानपुर नगर महापालिका वालों से सिर्फ़ इसी बात से चिढा हुआ हूँ कि काहे वो गली बनाई, अच्छी खासी प्रेम कहानी मे ट्विस्ट डाल दिए।गली ना होती तो कहानी का अन्जाम ही कुछ और होता।
छत पर उन्हे बुलाने में हमे बहुत मशक्कत करनी पड़ती, फिर बुलाने का तरीका भी बहुत अजीबो गरीब सा होता।उसकी खिड़की गली मे खुलती थी,मै छत पर जाकर किसी भी तरह से शोर करता, गाना गाता, कव्वै भगाता, कुछ भी करता।ताकि उस तक मेरी आवाज पहुँच जाए और उसे पता चल जाए कि मै छत पर आ गया हूँ। हमारी आवाज पर, वो खिड़की पर झांकने आ जाती, वंही इशारों इशारों मे छत पर आने का वादा ले लिया जाता। उन दिनो हम लोगों ने आँखो ही आँखों में बात करने की कला विकसित कर ली थी, नजर भी उतनी कमजोर नही थी, जितनी कि आजकल है।आंखो आंखो मे रूठना, मनाना, शिकवे शिकायत, गिला मुहब्बत। सभी कुछ तो हो जाया करता था।लेकिन उनके रूठने के बाद उन्हे मनाना आसां नही होता था, अब क्या है कि लड़किया एक बार मे नही मानती, कई कई बार मिन्नते करनी होती है, तब जाकर वो मानती और छत पर आने के लिये हाँ करती।लेकिन एक बात तो है, टाइम बहुत वेस्ट होता है इन सब में, लेकिन मजा बहुत आता था।और पढाई? उसकी किसको चिन्ता थी।
खैर तो जनाब, वो छत पर आ जाती, और हम अपनी अपनी मुँडेर (इसका मतलब फुरसतिया से पूछा जाए) पर खड़े रहकर घन्टो बतियाते, लोगो को दिखाने के लिये बात पढाई से शुरु होती, फिर धीरे धीरे बात जाने कहाँ कहाँ तक पहुँच जाती। और हाँ बात करने का कूट अन्दाज था, हम लोगों का। अगल बगल वाले सुनते तो अपना सर पीट लेते, लेकिन तब भी ना समझ पाते। हम लोगो को एक दूसरे जो कुछ कहना होता था, उसकी तैयारी बहुत पहले से ही हो जाती थी। तैयारी बोले तो, अरे यार, आपने सामने खड़े होकर प्रेम भरी बाते तो नही ना कर सकते थे ना।बीच मे गली थी, अगल बगल मे लोग रहते थे, तो क्या करते। कहते है ना जहाँ चाह वहाँ राह, हम लोगों की टेक्स्टबुक एक जैसी थी, इसलिये हम लोग पहले अपनी टेक्स्टबुक मे पेज नम्बर और लाइन नम्बर पर शब्दों को हाइलाइट कर लिया करते थे, पूरा का पूरा प्रेमपत्र तैयार हो जाता था। बस छत पर खड़े एक दूसरे को लाइन नम्बर, और शब्दो को नोट करा दिया करते थे, अगल बगल वाले सुनते भी तो यही समझते कि एक दूसरे से नोट्स एक्सचेन्ज कर रहे हैं। नोट कराने के बाद हम लोग छत पर ही उस प्रेम पत्र को पढते, बहुत अच्छा लगता। आप लोग कहेंगे कि बहुत वाहियात तरीका था, हाँ था, बोलो क्या उखाड़ लोगे? जब अगल बगल वाले कुछ ना उखाड़ सके तो तुम इन्टरनैट पर का कर लोगे? अरे यार प्यार मोहब्बत के चक्कर में, इन्सान क्या क्या नही करता।इशक नचाए जिसको यार, वो फिर नाचे बीच बजार। खैर प्रेम पत्र पढने के बाद हम लोग वापस फिर छत के किनारों पर आते और घन्टो बतियाते, लेकिन मुझे बतियाने से ज्यादा अच्छा लगता उसका चेहरा देखना। उसका हँसना, मुसकाराना, वो शरारती जुल्फों को झटके से दूर हटाना, वो मुस्कराना, अचानक देखे जाने पर शरमाना, लजाना और जाने क्या क्या।उस जमाने मे हम जितनी फ़िल्मे देखते थे, यकीन मानिये, हिरोइन की जगह उनके अलावा किसी को नही देखा। इसी चक्कर मे उस जमाने की हिरोइने नाराज हो गयी थी हमसे।
लेकिन थोड़े ही दिनों मे हम लोग इस नान इन्टरेक्टिव तरीके से बोर होने लगे, तो फिर हम लोगों ने लैटरबाजी करने की सोची। अब लिखने का शौंक तो था, लिख भी लेते, लेकिन पहुँचाने में हाथ पाँव फ़ूल जाते।वो शुकुल के मोहल्ले मे पढती थी, ज्वाला देवी इन्टर कालेज मे।हम अक्सर उनके स्कूल टाइम पर बाकायदा उनका पीछा करते हुए उन्हे छोड़ने जाते, बिना नागा किए हुए। और बाकायदा स्कूल छूटने के टाइम पर उनसे पचास कदम पीछे चलते हुए, घर तक वापस ले आते।लेकिन हिम्मत नही पड़ती थी, पास जाकर चिट्ठी उन्हे पकड़ा दें। अब तक उनको भी पता चल गया था, कि इस बन्दे के बस की बात नही कि चिट्ठी दे सकें, एक दिन खुद ही उन्होने रास्ते मे ही हमे बुलाया और पूछा, लिख ही ली है? हमने गर्दन हिलाई वे फिर बोली, तो देने मे इत्ती देर काहे कर रहे हो। हमारी तो सिट्टी पिट्टी गुम।अब का करें, बीच सड़क पर चिट्ठी कैसे दें, फिर उन्होने ही ज्ञान दिया कि कल किताब मे रखकर दे दीजिएगा, हमारी जान मे जान आई, उस दिन हमने समझ लिया, कि बन्धु ये इश्क मोहब्बत हमारे बूते की बात नही, बहुत हिम्मत चाहिए होती है। अगले दिन हमने किताब मे चिट्ठी रखी, धड़कते हुए, उन्हे पकड़ा दी।अब प्रेम पत्र लिखने का कोई इक्सपीरियन्स नही था, वानर सेना को बता नही सकते थे, नही तो पूरे मोहल्ले मे चर्चाएं छिड़ जाती, इसलिये हम अपने एक मित्र महेन्द्र बाबू को पकड़े, जो चट्खारे ले लेकर हमारी बाते सुने और चिट्ठी लिखने का पूरा इन्तजाम किए। चिट्ठी उन्हे दे तो दी, लेकिन दिल ऐसे धड़क रहा था, जैसे कलेजा मुँह हो आ जायेगा, बार बार डर सता रहा था, कि कंही ऐसा ना हो वो चिट्ठी पकड़ी जाए और चाचाजी हमारी क्लास ले लें। लेकिन हमे अपने प्यार पर पूरा भरोसा था।
आज ये लेख बहुत लम्बा हो गया है, बाकी का लिखेंगे तीन दिन बाद…अच्छा जी पढते रहिए, मेरा पन्ना।
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