बचपन के खुराफाती शौक : 1

हम सभी ने बचपन मे ढेर सारी शरारतें की होंगी, अब चिट्ठाकार है तो निसंदेह बचपन(अभी भी कौन से कम है) मे खुराफाती रहे ही होंगे। नयी नयी चीजें ट्राई करना और नए नए शौंक पालना किसे नही पसन्द? तो आइए जनाब आज बात करते है बचपन के कुछ खुराफाती शौंक की। इसी बहाने हम सभी अपने अपने बचपन मे ताक झांक कर लेंगे।

अब आप हमारे बचपने के मित्रों के बारे मे जानते ही होंगे। धीरु और टिल्लू, ये दोनो हमारे दाहिने और बांए हाथ हुआ करते थे। जो भी हम शरारतें करते थे, इसकी सजा इन्ही को मिलती थी, अब भाई दोस्तों के लिए कुछ तो कष्ट सहना ही पड़ता है। बचपन मे हम लोगो ने ढेर सारे शौंक पाले थे, एक एक करके उनके बारे मे बताते है।

डाकटिकटों का संग्रह
ये शौंक अक्सर सभी बच्चों मे पाया जाता है। अब पुराने जमाने मे चिट्ठियों का बहुत चलन था, इसलिए डाक टिकटों का संग्रह कोई महंगा शौंक नही था। पहले पहल तो हमने अपने घर मे आने वाले सारे पत्रों की डाक टिकटों का संग्रह करना शुरु किया। हम पत्रों को पाते ही, सफाई से उसकी डाक टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे धीरे हमे डाक टिकट निकालने मे अच्छी खासी काफी महारत हासिल होने लगी। सबसे पहले हमने रामादीन पोस्टमैन को मोहरा बनाया। बस ठाकुर के होटल पर बिठाकर एक कटिंग चाय पिलाने मे काम बन जाता था। जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ़ करते , हम लोग डाकटिकटों पर हाथ साफ कर देते।

थोड़े दिनो मे रामादीन ने भी डिमांड करनी शुरु कर दी , बोले कटिंग चाय और बांसी समोसे से काम नही चलेगा, बोले आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ। हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि हम रामादीन की वामपंथियो टाइप ब्लैकमेलिंग के आगे नही झुकेंगे और कांग्रेस की तरह अपने बलबूते मैदान मे उतरेंगे। इस तरह से हम लोगों ने, आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरु कर दिया।

हमारे लिए घर के बाहर लगे चिट्ठी वाले डाक बक्से खोलना भी कोई बड़ी बात नही रही थी। अब वो ज्ञान ही क्या जो अपना प्रकाश दूर दूर तक ना फैलाए, सो इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए हमने अपनी इस महारत को गली मौहल्ले के बच्चों तक पहुँचाया। लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे, पहले पहल तो लोगों को पता ही नही चलता, लेकिन धीरे धीरे कुछ शक्की लोगों ने हम लोगों की निगरानी शुरु कर दी थी। एक दो बार पकड़े भी गए, सूते भी गए, अब वो शौंक ही क्या, जो दबाने से दब जाए। हमारा यह शौंक जारी रहा, धीरे धीरे लोगों ने डाक टिकटों की परवाह करनी छोड़ दी।

अगली समस्या थी संग्रह करने की। हम लोग एक डब्बे मे डाक टिकटे संग्रहित करते, लेकिन टिल्लू और मैने एक दूसरे पर चोरी का इल्जाम लगाया। जो कि काफी हद तक सही इल्जाम था। काफी मुहाँचाई और हाथापाई के बाद नतीजा निकला कि हम लोग अपनी अपनी स्कूल की किताबों और कापियों मे टिकट सम्भालकर रखेंगे। थोड़े दिनो तक तो हम किताबों के अन्दर ही डाकटिकट संग्रहित कर लेते थे, लेकिन परेशानी ये होती थी, स्कूल मे दोस्त यार डाकटिकट छुवा देते, अब हमारी मेहनत पर कोई हाथ साफ करे, ऐसा कैसे हो सकता था। सो हम लोगों ने डाक टिकट संग्रह करने के लिए एक फाइल खरीदने का निश्चय किया। अब ये शौंक महंगा लगने लगा था।
डाकटिकटों का संग्रह

डाकटिकटों का संग्रह

चित्र सौजन्य से : शाह बुक कम्पनी

अपने शौंक को और बेहतर बनाने के लिए हम हैड पोस्ट ऑफिस वाले पोस्टमास्टर से मिले, उसने हमको और नयी नयी कहानी समझा दी। बोला इस तरह का डाक टिकट संग्रह कुछ मायने नही रखता, तुम लोग फर्स्ट डे स्टैम्प का संग्रह करो, यानि जिस भी दिन कोई नयी डाक टिकट जारी हो (वैसे भी भारत मे इतने राजनेता वगैरहा है, किसी ना किसी की जन्म, मृत्यू या कोई एचीवमेंट डे अक्सर हर दिन होता ही रहता है।) पोस्ट ऑफिस मे आओ, फर्स्ट डे स्टैम्प कार्ड खरीदो, डाक टिकट लगाओ,स्टैम्प लगवाओ और उसको संग्रहित करो। मामला खर्चीला था, लेकिन अब क्या करें, जानकारी कम थी, इसलिए इनकी नसीहत को भी अपनाना पड़ा।

धीरे धीरे देशी डाकटिकटो से मन भर गया तो हम विदेशी चिट्ठियों की डाक टिकटों पर हाथ साफ़ करने लगे। उस जमाने मे सोवियत संघ से किताबे आया करती थी, उस पर डाकटिकट हुआ करते थे। हम लोग वो डाकटिकट छुवा दिया करते थे। फिर एक दिन पता चला कि किदवई नगर मे एक दुकानदार बाकायदा विदेशी डाकटिकटों की बिक्री करता है। ब्रिटेन, रोमानिया, हंगरी, नामिबिया और ना जाने कौन कौन से देशों की नयी नयी डाकटिकटे देखने को मिली। हमने जब उसके सोर्स के बारे मे जाँच पड़ताल की तो हमे पता चला कि वो जनाब विदेशी डाकटिकटों की रिप्रिंटिग करके बेचते थे। चोर को मिले मोर, हम लोग हर हफ़्ते(जिस दिन जेबखर्च मिलता था) किदवई नगर जाकर, डाक टिकट खरीदेते, खरीदते क्या जी, चार खरीदते और आठ चुपचाप गायब कर लाते। इस तरह से चोर के घर चोरी का सिलसिला शुरु हुआ। धीरे धीरे दुकानदार को हम पर शक होने लगा और उसने हम लोगों की दुकान मे इंट्री ही बैन कर दी। अब वो खुद चोरी करता था तो सही था, हम लोग करते थे तो गलत, ये कहाँ का इन्साफ़ है। सही कहते है, चोर वही होता है जो पकड़ा जाता है।

अब हमारी जेबखर्च का आधा हिस्सा कामिक्स मे और बाकी का हिस्सा डाक टिकटों मे खर्च (ईमानदारी से खरीदने में) होने लगा।हर महीने हमारा व्यक्तिगत बजट डेफिसिट बढ रहा था। धीरे धीए हम भी अब डाकटिकटों से ऊब चुके थे। क्योंकि अब हम कुछ नयी चीजें संग्रहित करने वाले थे। इसका मतलब अगली खुराफात? जी हाँ, वो खुराफात थी…….. नही नही ऐसे नही बताएंगे, अगली पोस्ट मे लिखेंगे। तो भैया आते रहिए और पढते रहिए आपका पसंदीदा ब्लॉग। आप अपनी बचपन की डाकटिकटों के संग्रह वाली कहानी छापना मत भूलना। पहले टिप्पणी लिखो, फिर पोस्ट मे लिखकर बताना।

नोट: यह सर्वर समस्या के कारण लेख को पुन:प्रकाशित किया गया है। टिप्पणियां दोबारा करें, अति कृपा होगी।

5 responses to “बचपन के खुराफाती शौक : 1”

  1. nirmla.kapila Avatar

    अब हम क्या कहें हमारे बचपन में तो ऐसे शौक कम ही होते थे हमें तो लुका छू पी खेलना बेर जामुन तोड़ना और लड़की होने के नाते घर घर खेलना ही अछा लगता था अच्छा लगा आपका बचपन भी

  2. MERAPANNA Avatar
    MERAPANNA

    इस लेख पर की गयी टिप्पणियां (पुन:प्रकाशन)
    संजय बेंगाणी : आप जित्ते उस्ताद नहीं थे, न ही ऐसे होनहार साथी मिले वरना हम भी बचपन में खूब डंका पिटते, नाम रोशन करते. मगर आज तक इस विषय पर चूप हैं. आपने घाव हरे कर दिये. भोत पैसा गवाँया है इस शौक के पीछे.
    .-= संजय बेंगाणी´s last blog ..बलात्कार का एक पहलू दंभ की तुष्टि भी हैं.

    अन्तर सोहिल : अगली खुरापात जानने का इंतजार
    अजी कामिक्स पढने से ही फुरसत और पैसे बचते तो ही किसी संग्रह की सोचते
    नमस्कार

    अमित गुप्ता: पैसे की बात छोड़ दें तो बाकी जो संजय भाई ने कहा वो अपनी भी शॉर्ट स्टोरी है, वाकई आप जितने उस्ताद अपन नहीं थे, लेकिन अपनी टोली में सबसे अधिक चालू होने का तमगा अपने को ही मिला हुआ था, अपने से ज़्यादा चालू लोगों की संगत में रहकर दीक्षा पाई थी! 😀
    टिप्पणी तो कर दी, बाकी अपने ब्लॉग पर छापेंगे! 😉

    सुरेश चिपलूनकर : सभी के अपने-अपने शौक होते हैं, हमें बचपन में विभिन्न खेल पत्रिकाओं से गावस्कर के फ़ोटो और उनसे सम्बन्धित लेखों को एकत्रित करने का शौक था, आज भी पुराने अलबम पड़े हैं जिसमें गावस्कर की लगभग 1400 तस्वीरें पड़ी हैं। मजे की बात यह कि इसके लिये गावस्कर साहब ने पत्र लिखकर हमारा शुक्रिया भी अदा किया हुआ है, वह पत्र भी संभाल्कर रखा है… 🙂

    ईस्वामी : हिंदुस्तान में घरों के बाहर मेलबाक्स? इहां तो डाकिये दरवाजे के नीचे से चिट्ठी सरका देते थे. अच्छा संस्मरण है. 🙂

    डा. अनुराग : टिकट तो नहीं पर हाँ कंचे ओर सिक्के खूब जमा किये है….लोटपोट,नंदन,चम्पक,इंद्रजाल ,एस्ट्रिक्स ,डायमंड बुक्स ….आपकी ओर खुरापतो का इंतज़ार रहेगा

    अनूप शुक्ला : आगे की खुराफ़ातों के किस्से सुनाओ!

    परमजीत बाली : डाक टिकट का तो नही लेकिन कामिक्स पढने की बहुत बुरी लत हमे भी रही है।वेताल,मैन्ड्रक,चंदामामा आदि बहुत सी किताबों को जहां से मिले उठा या माँग लेते थे।:)

    अभिषेक : हम तो जी डाक टिकटों से मुहर हटा कर फिर से वापस भेज देते थे 🙂 और उसके लिए तरीके भी खूब अपनाए.

    कासिम : मुझे भी बडे उटपटांग शौंक थे. अपने ब्लाग पर लिखुगा.कामिक्स का तो मै दिवाना हु.कृपाया मेरे ब्लाग पर अपने अमुल्य सुझाव दे.

    प्रवीण पाण्डेय : खुराफाती शौक और भी होंगे । और पोस्टें ठेलें ।

    समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ वाले : हम तो खुद से भी मोटी एलबम बना लिए थे. पिता जी का ट्रांसफर हुआ और पैकिंग में एलबम गायब. हम कंचे ही गिनते संभालते रह गये.

    ए.के नन्दा : बड़े दिलचस्प तरीके से आपने यह बात रखी । कोई संदेह नहीं कि हम सब ऐसे ही किसी न किसी रूप में बचपन में शरारत किया करते थे । खैर, मैं ने डाक विभाग को लेकर हाल में तीस कहानी बाली एक किताब लिखी है । किताब का नाम “विरासत” है । किताब का लोकार्पण हो चुका है । अगर आप की यह लेख कुछ दिन पहले देखता तो और एक कहानी भी जोड़ देता !
    धन्यवाद ।

  3. Raj Avatar
    Raj

    वैरी इंट्रेस्टिंग ….

    वैसे हमने भी कॉमिक्स पढने के लिए बहुत जुगाड़ लगाये और छिप कर ढेरों कोमिक्से लाते…जिनमे तौसी, अंगारा , जम्बो , नागराज , ध्रुव , बांकेलाल , तिलिस्म्देव , लम्बू मोटू , राम रहीम मुख्या थे …डोगा के आते आते कॉमिक्स का असर कम होने लगा उसकी जगह वीडियो गमेस ने लेनी सुरु कर दी थी….

    अब वो जमाना गया… आज के बच्चों में न तो कॉमिक्सों का शौक है न ही उन खेलों का जो हम खेला करते थे…

    काश वो बचपन फिर लौट के आता ……

    आपने तो काफी भावुक कर दिया…..

  4. सागर नाहर Avatar

    हमने भी डाकटिकट, कंचे, रंग बिरंगे पत्थर, खाली माचिस की छाप अरह तरह के पेन आदि चीजें संग्रह की थी।
    और हां कॉमिक्स भी।
    .-= सागर नाहर´s last blog ..श्रीलक्ष्मी सुरेश: छोटी उम्र में बड़े कारनामे =-.

  5. Ashutosh Dixit Avatar
    Ashutosh Dixit

    जितेंदर जी, मुझे याद है किदवई नगर में “क्वालिटी बुक शॉप” में डाक टिकेट मिलते थे . मैं भी बहुत बार वहां से लाता था.
    और मेरे पास इंद्रजाल कॉमिक्स का बहुत अच्चा कोल्लेक्शन था , सब गायब हो गयीं.
    आपने पुराने दिन याद दिला दिए.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *