होली कब है?
अरे नही नही भई, यहाँ कोई गब्बर सिंह और सांभा के बीच वार्तालाप नही हो रहा है, ये तो अपने मोहल्ले की यादे ताजा की जा रही है.जनवरी के जाते जाते ये संवाद तो हम लोगो का तकिया कलाम बन जाता था. नये साल की खुशिया मनाने के साथ ही होली का इन्तजार शुरु हो जाता था.हमारे मोहल्ले मे होली का माहौल ही दूसरा होता था. होली की तैयारियाँ महीना भर पहले से शुरु हो जाया करती थी. हमारे यहाँ सामूहिक रूप से होली मनाने की प्रथा थी, सामूहिक बोलें तो चन्दा लेकर.वैसे भी कानपुर की होली तो पूरे भारत मे मशहूर है क्योंकि यहाँ एक दो दिन नही, बल्कि सात दिन होली मनायी जाती है, और शहर के होलसेल बाजार तो बाकायदा सात दिन बन्द रहते है, अब शायद कुछ मामला सुधर सा गया है. लेकिन होली कितने दिनो की हो ये आज भी अनुराधा नक्षत्र के प्रकट होने पर निर्भर करता है.
खैर जनाब हम तो आपको अपने मोहल्ले की होली की बाते सुनाना चाहते है. होली के लगभग एक महीने पहले तो हमारे मोहल्ले से निकलने वाले ट्रेफिक मे यकायक कमी आ जाती थी, क्यों अरे भाई वानर सेना सड़क पर बाकायदा मानव बैरियर लगा चन्दा वसूल जो करती थी. लोग कहते थे भई हम तो यहाँ रहते नही, फिर काहे का चन्दा दे, वगैरहा वगैरहा, लेकिन वानर सेना थी, बिना किसी की जेब ढीली किये जाने ही नही देती. चन्दा वसूलने के नये नये हथकन्डे अपनाये जाते, कभी किसी पर्स को सड़क के बीच डाल दिया जाता, कभी सिक्के जमीन से चिपका दिये जाते. जैसे ही बन्दा सिक्के उठाने के लिये या पर्स उठाने के लिये झुकता वानर सेना शोर करती हुई पहुँच जाती और चन्दा वसूलती.
तब उसका दूसरे मोहल्ले वाला राग भी नही चल पाता. एक मिंया जी तो अड़ गये बोले नही देंगे क्या कर लोगे, हम तो दूसरे मोहल्ले मे रहते है वंही पर चन्दा देंगे. लेकिन वानर सेना से आधे घन्टे की बकझक के बाद आखिरकार उनको जेब ढीली करनी ही पड़ी. कभी कभी तो पंगा हो जाता था, और वानर सेना को कुछ बदतमीजी( जैसे साइकिल की हवा निकालना वगैरहा…) पर उतरना ही पड़ जाता था.वैसे देखा जाये तो हम लोग चन्दा लेने के मामले मे काफी ‘लिबरल’ थे, अगले की औकात देखकर ही पैसे मांगते, और जो मिल जाता उसी से सन्तोष कर लेते थे. लेकिन कुछ लोग थे जो चन्दा नही देते, फिर उनके साथ होली का गु्द्दा खेला जाता था.चन्दा इकट्ठा करने मे मोहल्ले के किसी घर या दुकान को नही बख्शा जाता, सारे लोग खुशी से या बेमन से चन्दा दे ही देते. बस पंगा लेते थे तो कुछ लोग जैसे वर्मा जी वगैरहा. उनके बारे मे काफी कुछ लिखा जा चुका है सो इस बार उनको माफ कर देते है. तो साहब चन्दा इकट्ठा करके बाद हर बार पंगा होता था कि पैसे कौन रखे, किसी वानर को भी किसी दूसरे वानर पर पैसे के मुत्तालिक भरोसा नही था, अब किया क्या जाय, बैंक वगैरहा का ख्याल तो आता नही था, सो फैसला ये होता था कि चलो परचून वाले गुप्ता जी के यहाँ पर पैसे रखवा दिये जाय. अब गुप्ता जी ठहरे व्यापारी लाख ना चाहते हुए भी हर साल पैसों मे कुछ ना कुछ हेरफेर कर ही देते थे, आखिर पैसे रखने का कुछ किराया भी तो कोई चीज होती है, फिर गुप्ताजी पंगा लेते थे कि होली का सारा सामान उनके यहाँ से ही खरीदा जाय, उसमे उनका मार्जिन सो अलग. कुछ साल तो तक हो हमने उनको झेला, लेकिन हर बार ऐसा हो ये जरूरी तो नही. सो इस बार हम लोगो ने पक्का प्लान बनाया कि कुछ भी हो जाये, गुप्ता को चन्दे के पैसो से कमाई नही करने देंगे. आखिर हमारे खून पसीने की कमाई से चन्दा इकट्ठा होता था भई. सो इस बार हमने गुप्ताजी के कट्टर विरोधी और परचून के क्षेत्र मे नये नये उतरे पान्डेयजी को साधा, और सारा पैसा उनके पास रखवाया गया, लेकिन दोनो से साफ साफ कह दिया गया कि होली का सामान खरीदने का फैसला होली के दो तीन पहले ही होगा.दरअसल हम तो दोनो मे कम्पटीशन करवाना चाहते थे, और लगभग टैन्डरिंग प्रोसेस वाला मामला था. रोज गुप्ताजी सड़क पर चन्दा मांग रही सारी वानर सेना को पानी पिलवाते, तो पान्डे जी चाय भिजवा देते, गुप्ताजी क्यो पीछे रहे वो अगर जलेबी भिजवाते तो पान्डेजी समोसे. इन दोनो की तनातनी मे वानर सेना की मौज थी. खाओ पियो टनाटन और चन्दाबाजी मे मनोरंजन सो अलग.
अब दूसरा झगड़ा शुरू होता कि चन्दे के पैसे से किया क्या जाये, लकड़ियाँ लाई जाये, या गुलाल और रंग का सामान. बहुत बहसबाजी होती, बिल्कुल संसद के माफिक लेकिन फैसला वही होता जो हर साल होता, यानि कि गुलाल,रंग, गुब्बारे,गेरूवा रंग और चमचम रेडियो वाले का लाउडस्पीकर सिस्टम.
अब आप पूछेंगे ये गेरूवा क्या होता है, अरे भाई, ये सस्ता सा रंग होता है, जो मकानो के बाहरी दीवारो पर लगाया जाता है, अब सस्ता होता है इसलिये कम पैसे मे ज्यादा आता था, वो वानर सेना मे ये बहुत पापुलर था. बड़े बूढे बोलते थे, ये स्वास्थ्य के लिये ठीक नही होता है, अब उस जमाने मे हाइजीन किस चिड़िया का नाम होता है, किसे पता.सो चन्दे से गेरूवा रंग लाया जाता था और उसी को घोला जाता था वैसे तो गुब्बारो का प्रयोग वर्जित था, लेकिन हमारे मोहल्ले मे वर्जित शब्द को लेकर ही काफी विरोधाभास था, सो वानरसेना की ही चलती.रंग का प्रयोग होली जलने के साथ ही चालू हो जाता था, यानि की होलिका दहन की रात, हाँ इस बात का ख्याल रखा जाता था कि रात मे सिर्फ गुलाल का ही प्रयोग हो, सारे लोग एक दूसरे के गले मिलते, टीका करते और होलिका के चक्कर लगाते और खूब हुड़दंग करते. उस रात हम लोग सोते नही थे, सारी रात मोहल्ले मे पतंगी कागज की बनी झंडिया लगायी जाती थी, मोहल्ले के नलो से सारे ड्रमों मे पानी भरा जाता था, चमचम रेडियो वाले के लाउडस्पीकर फिट करवाये जाते थे और उसके रिकार्डस का कलैक्शन खंगाला जाता था. अब चमचम रेडियो वाले की कहानी भी कुछ अजीब थी, उसकी मोहल्ले मे एक जगह सैटिंग थी, सो हमेशा लाउडस्पीकर उसी मकान पर लगवाने की जिद करता था, क्योंकि इसी बहाने उसे घर के अन्दर घुसने की इन्ट्री मिल जाती थी.अब चन्दा हम लोग करे और लाउडस्पीकर किसी और के द्वारे लगे, ना बाबा ना , ये हम बर्दाश्त कैसे करें, खैर कई बार समझाया हमने, लेकिन चमचम रेडियो वाला हमेशा ही हमको तकनीकी बाते समझाता था कि हम लोग को चुप रह जाना पड़ता था,
पिछले साल हम लोगो ने चमचम वालो के दो चार रिकार्ड छुवा दिये थे, तब से चमचम वाले ने हाथ जोड़ माफी मांगी थी और बोला था मेरे बाप जहाँ कहोगे वंही लगाऊंगा लेकिन मेरे रिकार्ड वापिस करवा दो. सो जनाब इस बार कम से कम लाउडस्पीकर का पंगा नही था.हमारे मोहल्ले मे एक नेताजी भी थे, लेकिन उनके साथ पंगा ये होता था कि सामान्य अवस्था मे तो वो भाषणबाजी करते थे, लेकिन जैसे ही थोड़ा सा नशा किया नही कि बस नेताजी शुरु हो जाते थे, जोक्स सुनाने और डान्स करने. ये नेताजी हमारे होली का विशेष आइटम….साँरी विशेष अतिथि होते थे, पहले पहल तो नेताजी भाषण देते, धीरे धीरे भांग के पकौड़े खा खाकर ये पूरे रंग मे आ जाते.बस फिर क्या था जी, हम लोग इनको मीठे पर मीठा खिलाते जाते और नेताजी का नशा बढता जाता, और सारा मोहल्ला मौज लेता.
होली के दिन की बाते…..अगले अंक मे
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