कल धनतेरस थी और आज छोटी दीवाली है, लेकिन हम दीवाली के दिन भी बैठे हुए है आफ़िस मे। अब विदेश मे कहाँ वो दीवाली और कहाँ वो होली, रक्षा बंधन और दशहरा तो इनके फ़रिशतों को भी नही पता होगा। तो जनाब बात हो रही थी, दीवाली की। अभी पिछले दिनो अपने ईस्वामी जी ने इसी पर एक लेख लिखा:बैठे बैठे खयाल! सही कह रहे हो ईस्वामी जी। हमने भी वहाँ पर तपाक से टिप्पणी ठोक दी|
बस यंही फ़ड्डा हो गया। वंही से अपने शुकुल जी नहा धोकर हमारे पीछे पड़ गये बोले अब तो लिखना ही पड़ेगा। हम भी सोचे, जिन्न और जिन्नात से पीछा छुड़ाया जा सकता है, लेकिन शुकुल से नही। अब जब शुकुल कन्धे पर चढ गये है बिल्कुल बेताल की तरह है, कहानी सुनकर ही उतरेंगे। इसलिये हमने अपने कन्धे पर लदे, शुकुल को थपथपाया और मन ही मन सोचा कि लिखकर निकाल देते है दिल के गुबार। तो जनाब पेश है हमारी दीवाली की यादें।
यूं तो त्योहारों की मस्ती अगस्त से शुरु होती थी, जिसमे दशहरा आने तक एक ठहराव आता था। और दीवाली आने तक इस मस्ती को और हवा मिलती थी।बड़ों के लिये दीवाली का चाहे जो मतलब हो, हमारे लिये तो दीवाली का मतलब नये कपड़ें, मिठाई, पटाखे और बड़ों से मिलने वाली दीवाली का आशीर्वाद(मनी) हुआ करता था।दीवाली आने से पहले ही दुकाने सजने लगती थी।हम और धीरू, निकल पड़ते थे, अपनी अपनी विश-लिस्ट बनाने। ये ध्यान जरुर रखा जाता था, कि विश-लिस्ट मे ज्यादा से ज्यादा आइटम हो(वैसे भी लिखने मे अपना क्या जाता था), ताकि धीरू नरवसिया जाय। अब नरवसियाने का मतलब हमसे ना पूछा जाय, पूछताछ कार्यालय, फ़ुरसतिया जी के अहाते मे है। हाँ तो हम कह रहे थे, कि जहाँ धीरू नरवसियाया नही वहाँ उसकी चोक लेनी शुरु हो जाती थी।बेचारा धीरु, साल भर अपना जेब-खर्च बचा बचा कर पटाखों को खरीदने का प्लान बनाता, हम लोग दीवाली के आसपास उसके सामने अपनी लिस्ट द्वारा इतने आपशन रखते कि वो फ़ुल्ली कन्फ़्यूजिया जाता। खैर, हम लोग दुकान दुकान जाते, हर चीज के रेट पूछते, पूछते…………. इतना पूछते कि, दुकानदार झल्ला जाता। वो हमारी शक्ल देखकर ही, दूसरे ग्राहकों की तरफ़ देखने लगता, फ़िर भी हम तो फ़ुल्ली फ़ालतू, टंगे रहते उसकी दुकान पर। सभी चीजों के भाव पता करते, लेना देना तो कुछ होता नही था, बस घर मे अपनी डिमान्ड बतानी होती थी, इसलिये मार्केट सर्वे तो करना ही पड़ता है ना। है कि नही।
हमारे यहाँ दीवाली, एक हफ़्ता पहले ही शुरु हो जाती थी, दीवाली से ठीक एक हफ़ते पहले हम सभी परिवार वाले अपने कुल देवता की पूजा करते और उनसे आशीर्वाद मांगते कि यह दीपावली सुख शान्ति से बीते। मेरे को आज तक फ़न्डा समझ नही आया, दीवाली से एक हफ़्ते पहले तो कुल देवता के आगे पीछे घूमा जाता, बाकिया साल उनको घास तक नही डाली जाती।मेरे विचार से , हनुमान जी भी मेरी बात से सहमत होंगे, मंगलवार और शनिवार को छोड़कर,बाकी दिन बेचारे को कोई झांकने भी नही आता। उन्हे तो शायद भोजन भी खुद उठकर करना पड़ता होगा, कोई भी नही पहुँचता उनके द्वारे। खैर, ये मसला तो हमारे कुल देवता का है, वो झेले, हम क्यों माथापच्ची करें। जैसे जैसे हम बड़े हुए तो हमने एक्सप्लोर किया कि ये कुल देवता की पूजा तो एक बहाना था,दरअसल इसी पूजा मे सभी लोग अपनी अपनी डिमान्ड घर के बुजुर्गों के सामने रखते।किसी को कुछ चाहिये होता, किसी को कुछ। इस डिमान्ड से ही, घर मे पंगे शुरु हो जाते। मै हर साल सूट(कोट,पैन्ट) की डिमान्ड करता, जो नकार दी जाती। कहा ये जाता कि तुम बढते हुए बच्चे हो, इसलिये अगले साल कोट पैन्ट बेकार हो जायेगा। इसलिये निकर और शर्ट ले लो। हम मन मसोसकर रह जाते और अपने ग्रोइंगनैस को कोसते। अब जब ये सच्चाई थी, तो का करते। खैर दीवाली से पहले जो भी रविवार पड़ता, उस दिन घर मे पुताइयां होती। अपने जुम्मन चाचा अपने ब्रुश और पुताई के सामान के साथ, तय दिन पर पहुँच जाते। उनकी पहली डिमान्ड होती कि, मेरे को बांधकर रखा जाय।क्योंकि एक बार जब वे सीढी लगाकर पुताइयां कर रहे थे, तो हम लोगों ने सीढी हिला दी थी, और जुम्मन चाचा, भड़भड़ाकर नीचे गिर पड़े थे। चाचा गिरे तो गिरे, ऊपर से सीढी गिरी और साथ गिरा डिस्टेमपर का डब्बा, चाचा की तो दीवाली मे ही होली मन गई।अब सारी गलती मेरी नही थी, टिल्लू और धीरू ने चैलेन्ज किया था कि सीढी नही हिल सकती और मैने हिलाकर दिखा दिया। अब ये बात और है कि ये चाचा वाला हादसा हो गया। लेकिन मार हम तीनों को पड़ी थी। तब से जुम्मन चाचा काम ही तब शुरु करते, जब मेरे को घर के बाहर भेजा जाता।
घर की पुताई,सफ़ाई के बाद बारी आती, पकवान बनाने की, इस समय भी हमारा किचन मे प्रवेश वर्जित था, ये बात और थी, हम लोग नजर बचाकर, एक दो लड्डू और गुलाबजामुन पर हाथ साफ़ कर ही लेते थे। आज एक और कन्फ़ेशन करना है, कि पूजा के बाद माताजी पड़ोसियों के लिये जो थालियां सजाकर देती थी, उसमे से भी थोड़ा थोड़ा हम लोग टैक्स के रुप मे छुवा लिया करते थे।इसी कारण सन्तों काकी हमारी तरफ़ टेड़ी नजर से देखा करती थी, क्योंकि एक बार उनके द्वारा भेजे गये,उनकी पड़ोसन सहेली की थाली से सारे लड्डू गायब हो गये थे, और बाद मे क्रास वैरीफ़िकेशन मे हम पकड़े गये, त्योहार के कारण छोड़ दिया गया, वरना बहुत पिटते।
दीवाली वाले दिन हमसे भाग भाग कर काम करवाया जाता। सारे घर मे जगह जगह दीये रखते, रंगोली बनाते। हाँ रंगोली बिगाड़ने मे हमारा विशेष योगदान होता, वहाँ भी टिल्लू और मेरे को लताड़ पिलाई जाती।दीये रखने के बारे मे याद आया, हम लोग कुम्हार के घर जाते, दिये खरीदने। मेरे को आजतक नही समझ मे आया, कि चाचाजी बाकी सामान खरीदने मे तो चुपचाप बिना झिगझिग किये पैसे निकालकर दे देते थे, लेकिन कुम्हार के चार पैसे देने मे इतना मोलभाव क्यों करते थे, क्या उसकी दीवाली नही होती? क्यों करते है हम ऐसा? जवाब शायद स्वर्गवासी चाचाजी के पास भी नही होगा।
दिवाली मे हमको सबसे खराब और ऊबाउ काम लगता था, पूजा करना। अब शाम होते ही, नये कपड़े पहना तो दिये जाते लेकिन सख्त ताकीद की जाती कि, घर से बाहर मत निकलना, पूजा होनी है। अब पूजा भी ऐसी वैसी नही, पूरी पूरी दो ढाई घन्टे की, उसमे पता नही कितनी बार हम झपकिया ले चुके होते। ना जाने कितनी आरतियां होती, लोग पढ पढकर आरतियां बोलते, सबका अलग अलग स्वर और आलाप। हमको तो बहुत पकाऊ लगता, लेकिन बुजुर्गों का डर था। हमारा ध्यान तो बस मिठाई वाले डब्बों, तोहफ़ों वाले टोकरों और आतिशबाजी वाले पैकेटों की तरफ़ रहता। पूजा के तुरन्त बाद हम चबूतरे,बालकनी,छत की मुंडेर हर जगह मिट्टी के दिये रखते (तब बिजली की लड़ियां लगाने का फ़ैशन नही था) पूजा के बाद, सबको तोहफ़े मिलते (कपड़ों के अलावा भी) हम सभी तोहफ़े पाकर बहुत खुश होते और एक दूसरे को दिखाते। लेकिन एक दीवाली पर हम खुश नही हुए, क्योंकि हमने चुपके से चाचाजी और पिताजी के डिसकशन को सुन लिया था, कि इस दीवाली बहुत खर्चा हो गया है, इसलिये इस बार वो दोनो, अपने लिये कोई तोहफ़ा नही लेंगे। यह सुनकर हमे बहुत ग्लानि हुई, उस दिन से हमने तोहफ़ों के लिये कभी भी जिद नही की। बल्कि एक बात तो टिल्लू तोहफ़े के लिये पंगा ले रहा था, तो उसको भी सूत दिया था मैने। दीवाली सारे परिवार का त्योहार है, अगर बड़े हमारे लिये कुछ करते है तो छोटों का भी फ़र्ज बनता है कि जो मिला है उसी मे खुश रहे। है कि नही?
खैर मामला हल्का कर लेते है….फ़िर बारी आती आतिशबाजी छुड़ाने की, हम लोग छत पर पटाखे छुड़ाया करते थे। इस काम मे हम सबसे आगे रहते थे। खूब आतिशबाजी होती, राकेट छुड़ाने की मनाही होती, वो हम छिप छिप कर छुड़ाते थे। घर के सारे मेम्बर को कम से कम एक फ़ुलझड़ी जलानी जरूरी होती। खूब हो हल्ला होता, मस्ती होती। खूब खाना पीना होता। इस सबको निबटाने के बाद हम बच्चा पार्टी (किसी एक बड़े की देखरेख में) बाजार घूमने निकल जाते। लौटकर आते तो हमे खाने के बाद, दीवाली स्पेशल गरम गरम दूध पीना पड़ता,( पीना क्या झेलना पड़ता, बहुत अजीब सा स्वाद होता था) उसके बाद लक्ष्मी जी के लिये एक बिस्तर सजाया जाता, ताश की गड्डियां रखी जाती। और बड़े लोग ताश खेलते और छोटे लोग फ़िर बिजी हो जाते पटाखे छुड़ाने वगैरहा में। बड़ों की ताश का खेल, अगले दो दिनो तक चलता। चाचाजी को इस खेल से बहुत चिढ थी, अगले दिन सवेरे सवेरे, मै और चाचाजी, बहुत सारे तोहफ़े लेकर अनाथ आश्रम और वृद्द आश्रम जाते। अनाथ आश्रम मे बच्चों को तोहफ़े देते वक्त चाचाजी की आंखे छलछला आती। समय के साथ साथ, दीवाली की दूसरी परम्परायें भले ही खत्म हो गयी हो, लेकिन इस परम्परा को आज भी हम लोगों ने जीवित रखा है। दीवाली खुशियों का त्योहार है, तो खुशियां हर जगह होनी चाहिये ना? ऐसा नही होना चाहिये कि हमारे घर मे तो दिया जले, लेकिन दूसरे के घर मे अन्धेरा। आइये हम इस दीवाली पर शपथ लें कि हम अपने आस पास हर जगह खुशियां बिखेरेंगे।हर घर मे दिया जलता हुआ देखेंगे। अगर हम किसी असहाय और गरीब के घर मे एक दिया भी जला सकें और उसकी जिन्दगी में खुशियां प्रदान कर सके तो यही हमारी सच्ची दीवाली होगी। जिस दिन हर भारतवासी इस ज़ज्बें को समझेगा, उसी दिन हमारी सच्ची दीवाली होगी।
अब हमारे घर दीवाली की पार्टी तो वीकेन्ड को ही होगी…उसका हाल फ़िर कभी। आपको और आपके परिवार को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनायें।मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि इस दीवाली आपके घर सुख शान्ति, सम्पदा, समृद्दि,स्वास्थ्य,सरस्वती और संयम का वास हो। आते रहिये और पढते रहिये “मेरा पन्ना”। और हाँ अपनी अपनी दीवाली की यादें हमारे साथ बाँटना मत भूलियेगा।
Leave a Reply