कभी कभी लाइफ बहुत फिल्मी हो जाती है, ऐसा ही मेरे साथ हुआ। वैसे तो मैं लगभग हर मौसम में, गोवा, जा चुका हूँ, लेकिन मुझे गोवा की एक ट्रिप कभी नहीं भूलती। मेरे को एक सेमिनार के लिए गोवा पहुंचना था, आयोजकों ने लखनऊ-मुंबई-गोवा टिकट भेजी थी, पहले तो कानपुर-लखनऊ के ट्रैफ़िक ने मेरी फ़्लाइट छुड़ाई। बाकायदा मेरी आँखों के सामने सामने जहाज उड़ गया.. अब क्या करे.. कंपनी को समझाया, बात करी, वे बोले आना जरूरी है, परसों तुम्हारी स्पीच है,एक दिन बाद आओ, लेकिन आओ जरूर, हम सब इंतजार कर रहे हैं। जेब टटोली, उस ज़माने में सिर्फ रेजगारी ही बचती थी, उसमे दिल्ली-लखनऊ-मुंबई-गोवा का टिकट नहीं ले पाता। इसलिए दूसरा रास्ता अपनाना पड़ा।
गोवा की ट्रेन (गोवा एक्सप्रेस) रात 12 बजे झाँसी से मिलती थी। मरता क्या ना करता, गाड़ी घुमाई और झाँसी की जगह सीधे ग्वालियर पहुँचा। अब ग्वालियर क्यों, इसकी कहानी फिर कभी..। ग्वालियर में ट्रेन रात 2 बजे आती थी, थोड़ी लेट थी, खैर अब किस्मत हो खराब तो क्या करे सोहराब… (अपना नान वेज वाला मुहावरा आप खुद लगा लेना 😊)
टीटीई से बात करी, वो साफ़ मुकर गया बोला गाड़ी फुल है, मैंने रिक्वेस्ट करी कि मुंबई के मुहाने तक ही ले चलो, बोला, नामुमकिन, पीछे एक और ट्रेन आ रही है, शायद झेलम एक्सप्रेस, उसमें पुणे तक निकल जाना, वहाँ से आगे रोड से निकल लेना। वो तो ज्ञान देकर निकल लिया… हम इंतजार करते रहे अगली ट्रेन का।
खैर ट्रेन आई, उसमे टीटीई काफी फ्रेंडली था, बोला आओ पत्ते खेलते हुए चलते हैं। इस तरह से हम नगर (अहमदनगर, अब शायद अहिल्या बाई नगर हो गया है) तक पहुँचे, अब वहाँ से टैक्सी ही ना मिले, खैर महाराष्ट्र रोडवेज की बस से कोल्हापुर पहुँचे। कितना खूबसूरत शहर है भाई, जितना शहर सुन्दर, उससे ज्यादा अच्छे लोग। खुशगवार मौसम और खुशमिजाज लोग, बहुत अच्छा लगा। आगे का रास्ता हमने टैक्सी से करने का फैसला किया। टैक्सी भी ऐसी वैसी नहीं, ऊपर वाला हिस्सा खुला हुआ…. एक तो मानसून ऊपर से खुली छत वाली टैक्सी… किस्मत खराब.. क्या करे सोहराब.. 😜
कोंकण, पश्चिमी घाट में आता है, मॉनसून में कोंकण का क्षेत्र, बहुत ही खूबसूरत दिखता है, मानसूनी हवाएं, हल्की-तेज बारिश माहौल को और खूबसूरत बना देते हैं। हरियाली इतनी कि आँखों को सकून मिले, ऊँचे ऊँचे पहाड़ और गहरी गहरी घाटियाँ, टेढे मेढ़े रास्ते और दूर दूर तक वीराना, कुल मिलाकर डर, रोमांच का मिला जुला एहसास। टेक्सी वाले ड्राइवर का तो, जैसे कि रास्तों से याराना था, बाकायदा किसी भी मोड़ पर स्पीड कम नहीं करता.. उल्टा बढ़ा देता। मुझे पक्का यक़ीन हो चला था कि, मेरी किसी एक्स ने इसको, मेरी सुपारी दे रखी है। ऐसा लगता था कि, अगले मोड़ पर प्राण बस निकलने ही वाले हैं। जब मैंने संभाल कर चलाने को बोला तो उसकी रहस्यमयी मुस्कराहट मुझे रामसे ब्रदर्स के चौकीदार जैसी लगी। अब धड़कन घड़ी की सुई से भी ज्यादा तेज चलने लगी थी।
दिल कहता था कि अगले वाले पहाड़ के बाद गोवा आ जाएगा, दिमाग कहता था, घर वापसी तो नहीं होने वाली। दूसरी तरफ पहाड़ तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। गोवा अभी 4 घंटे दूर था। कहाँ मैं उड़ कर, एक दिन पहले सुबह तक गोवा पहुँचने वाला था, अब दो दिन का समय लगाकर… अपने जलाने और दफनाने के डरावने ख्वाब देख रहा था।.. .. खैर! ये वाला सफ़र बहुत ही सुहाना कम और डरावना ज्यादा था। हनुमान चालीसा पढ़ते पढ़ते, मैं सो गया और सीधा पणजी में ही जागा। दक्षिणी गोवा, जहां होटल था, तक रास्ता खाली मिला। किसी तरह से होटल पहुँचा और कमरे जाकर ऐसा लुढ़का कि अगले दिन सुबह ही उठा। गोवा की ऐसी रोमांचक ट्रिप आज भी याद करके डर लगता है।
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