कानपुर की दो ही चीजें मशहूर हैं, पान मसाला और चमड़े की वस्तुएं। पान मसाले का बेताज बादशाह, मेरा लंगोटिया यार है, उस ज़माने में राम कृष्ण नगर में उसके घर पर पान मसाला बनाया जाता था, और मूलतः पान की दुकानों को ही बेचा जाता था। अंकल की साफ़ हिदायत थी, बच्चे इसको ना ही चखें, इसलिए हम सभी को उस कमरे से दूर रखा जाता था। हालाँकि उस समय, पान मसाला, शुद्ध सामग्री से ही बनाया जाता था, धीरे धीरे व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने उसका रूप स्वरुप और शुद्घता की ऐसी की तैसी कर दी।
कनपुरिया होने के बावजूद मुझे कभी पान मसाला या गुटखा का शौक नहीं हुआ, क्योंकि मुझे पता था,सस्ते के चक्कर में इसमे क्या क्या डाला जाता है। उमर बढ़ने के साथ, अंकल ने हमे अपनी लैब में एंट्री देनी शुरू कर दी, हमे क्वालिटी कंट्रोल वाले सेक्शन तक ही जाने दिया जाता, अंकल सारे शहर के गुटखे के सैंपल लेकर आते, हम लोग पानी और दूसरे केमिकल डालकर उसकी शुद्धता की जाँच करते, तब पता चलता, ना जाने कितनी अखाद्य सामग्री इसमे डाली जाती है। आपको विश्वास ना हो तो, एक पाउच को पानी में डाल दीजिए, 15 मिनट के बाद, जब सुगंध पानी से धुल जाए, तो बची खुची सामग्री को उठा कर स्वाद लीजिए, आपको खुद पता चल जाएगा।अगर फिर भी ना पता चले, तो किसी भी लैब में ले जाकर पता करवा लीजियेगा। धंधा है पर गन्दा है।
उस ज़माने में, कानपुर की लगभग सभी टैनरियों में मेरा बनाया सॉफ्टवेयर ही चलता था, उस समय चमड़े की छालन, जो कचरे में फेंकी जाती थी, उसके खरीदने वाले भी ग्राहक आते थे, बाद में पता चला कि खरीदने वाला इसको प्रोसेस करके सस्ते पान मसाला वालों को बेचता था।फेंके हुए कचरे का भी लाखों का कारोबार हो गया था। अंकल की लैब ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी, तब से पान मसाला, खैनी और गुटखा बनाने वालों को दूर से ही नमस्कार है, हालाँकि खाने वाले इसके नफे नुकसान पर आज भी बहस करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि मसाला गुटखा खाने से सिर्फ नुकसान होता है, इन गुटखा प्रेमियों की पत्नियों से पूछिये, कि घर में कितनी शांति रहती है। ये लेख समर्पित है, उन सभी मसाला/गुटखा प्रेमी दोस्तों को, जो बेचारे पूरा मुँह खोले बिना सिर्फ हाँ जी, वाली कंसेंट देते रहते हैं।
कहानी तो छोटे लोगों की लिखी जाती हैं, कानपुर नगर का तो इतिहास लिखा जाता हैं।
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