अनुगूंज 18: मेरे जीवन में धर्म का महत्व
सबसे पहले तो संजय भाई को बहुत बहुत बधाई, इस बार के अनुगूँज के आयोजन के लिये। संजय भाई ने विषय भी बहुत सही चुना है। मेरे जीवन मे धर्म का महत्व। काफ़ी विवादास्पद विषय है, हर व्यक्ति की धर्म की परिभाषा अलग अलग होती है।अभी इसी विषय पर अमित के ब्लॉग पर काफी विवादास्पद टिप्पणियों का आदान प्रदान हुआ है।बस जूता लात नही हुई, वो भी इसलिये कि सभी लोग सिर्फ़ इन्टरनैट पर थे, आमने सामने होते तो शायद वो भी हो जाती।खैर इस बारे हर व्यक्ति स्वतन्त्र है, अपनी अपनी बात कहने के लिये|जहाँ तक मेरा ख्याल है मैं भी स्वतन्त्र लोगों की श्रेणी मे आता हूँ(हालांकि शादी के बाद स्वतन्त्रता कहाँ बची रहती है) फिर भी मै कोशिश करता हूँ अपने विचार आपके सामने रखने की।किसी शायर की एक पंक्ति याद आ रही है।
खुदा ने इन्सान बनाया, हमने उसे हिन्दू और मुसलमान बनाया
धर्म एक व्यापक शब्द है। धर्म की परिभाषा भी लोगों ने अपने अपने हिसाब से दी।परिभाषा के रुप मे देखा जाय तो धर्म, जीवन को सुचारु रुप से चलाने के नियमों और सिद्दान्तो का नाम है। लेकिन इस परिभाषा के एक एक शब्द पर वाद विवाद किया जा सकता है।मै दूसरे के धर्म पर कोई टीका टिप्पणी नही करना चाहता, इसलिये आइये हिन्दू/सनातन धर्म की बात करते है।विस्तार मे आशीष पहले ही बता चुका है।हिन्दू धर्म का आधार निम्न बिन्दुओ पर आधारित है:
- अहिंसा
- सत्य
- पूजा अनुष्ठान
- कर्म
- पुनर्जन्म (जन्म जन्मान्तर)
- मोक्ष
- स्वर्ग-नर्क
अगर मेरी माने तो सत्य अब ढूंढे नही मिलता, अहिंसा का कोई नामो निशान नही है,आपको कंही मिले तो बताना मुझे भी। पूजा अनुष्ठान पन्डितों का पेशा बन गया है, कर्म का क्या पूछो, हर व्यक्ति हरामखोरी को ही अपना कर्म मानता है। स्वर्ग नर्क और मोक्ष के विचार सिर्फ़ बुढापे में ही याद आते है।तो क्या हमारा धर्म अपने विचार खो चुका है? नही, एकदम नही। दरअसल परेशानी तब शुरु हुई, जब वेद पुराणों मे लिखी बातों की, विद्वानो और स्वयंभू विद्वानों ने अपने फायदे के लिये,अलग अलग तरीके से व्याख्या की।यही मूल समस्या रही।फिर हर काल /परिस्थिति में धर्म को जो रास्ता दिखाना चाहिए था, वो नही दिखा। इतने विरोधाभास हैं कि लोग आज भी नही समझ पाते, जहाँ किसी विद्वान से तर्क वितर्क करों तो आप पर नास्तिक का ठप्पा लगा दिया जाता है और अधर्मी का खिताब मुफ़्त मे मिलता है। फिर उस धर्म का विकास कैसे होगा, जो अपनी आलोचना नही सह सकता और विसंगतियों पर चर्चा ही नही करना चाहता।लेकिन धर्म का विकास करना ही कौन चाहता है? अगर वो हो गया तो इन कर्मकान्डियों की दुकानें ना बन्द हो जायेंगी।
लेकिन सवाल ये उठता है, इतनी क्लिष्ठ भाषा मे ये ग्रंथ क्यों लिखे गये, अरे जब ये सभी मानव जाति के लिये लिखे गये तो सीधी साधी संस्कृत मे लिखो, एक ही शब्द के दस दस मायने, ये क्या माजरा है भाई। जहाँ तक अपना दिमाग दौड़ता है उस समय सारे ऋषि मुनियों के बीच सुपर रिन की जमकार वाला खेल चल रहा होगा,भला उसका ग्रन्थ मेरे ग्रन्थ से क्लिष्ट कैसे? बस इसी चक्कर मे लिखते चले गये ये लोग।फिर बाद मे श्रम व्यवस्था के हिसाब से पंडितो को यह काम दे दिया गया,वे तो बेचारे आज भी ग्रन्थ पढकर अपने हिसाब से (जितना उनको आता है) जनता को समझाते है, लेकिन जनता है कि समझती ही नही।अब बात करते है विरोधाभास की
अब विरोधाभास को ही लें, जीवन मे हर जगह है, धर्म मे भी क्यों ना हो।एक भगवान जी कहते है ये मत करो, वो मत करो, ऐसा मत खाओ, वैसा मत खाओ, दूसरे बोलते कुछ नही, बस खाते पीते रहते है और मस्त रहते है।पौराणिक कहानियों मे भी बताया गया है कि देवता लोग खुद तो पी पा कर टुन्न रहते थे।पी पा का क्या मतलब हुआ? अमां यार! सोमरस पीकर और अप्सराओं को पाकर टुन्न रहते थे, अब खुश। साथ ही लगे हाथों मनुष्यों को बिना सोचे समझे वरदान देते रहते थे, बाद मे पछताते भी थे, मतलब? अमां खुद ही पढ लो ना,सारी अमर चित्र कथा हम थोड़े ही बताएंगे।दूसरी तरफ़ एक और जाति भी थी, असुरों की, वे बहुत शक्तिशाली थे, देवताओं की असुरों से हमेशा XXX थी, उन्हे डर लगा रहता था कि असुर उनका राज्य हड़प करके,उनकी अप्सराओं को छीन लेंगे।अबे जिसके पास ताकत होगी वो तो छीनेगा ही, जिसकी लाठी उसी की भैंस सॉरी अप्सराएं।हमको तो आजतक नही समझ मे आया, कि इन्द्र का मन्त्रिमन्डल काहे के लिए था, करते धरते तो कुछ थे नही, इत्ते सारे काहे भर दिए थे, थोक में।हर इलाके का एक मन्त्री, बिहार का मन्त्रिमन्डल था क्या?
अब बेचारे मनुष्य क्या करते? करते क्या, उनको तो बता दिया गया था, भक्ति करो और उपवास रखो।ऐश करने के लिये हम है ना।यहीं तक बात रहती तो ठीक थी, मनुष्य स्वभाव वैसे ही चंचल होता है, इधर उधर भटकता रहता है।ऊपर धर्म मे कोई पाबन्दियां तो थी नही, इसलिये धर्म के ठेकेदारों की दुकाने खुल गयी।हरेक ने अपना अपना डिजाइनर धर्म बनाया, अपने अपने शिष्य बना लिए। इस तरह नये नये पन्थों का चलन हुआ। बात यहाँ तक होती तो भी ठीक थी, फिर शुरु हुआ, किसका धर्म श्रेष्ठ वाला एपीसोड।इसके चक्कर मे लोग एक दूसरे के धर्म की गलतियां निकालते चले गये और आपस मे बैर बढता चला गया। अरे क्या फ़र्क पड़ता है धर्म क्या है।हाँ विश्व हिन्दू परिषद वालों को फर्क पड़ता है।
मेरा धर्म
मै तो ना तो मूर्ति पूजा मे और ना ही हवन अनुष्ठान मे यकीन करता हूँ, लेकिन साथ ही मै कोशिश करता हूँ कि घरवालों के धार्मिक विचारों को क्षति ना पहुँचाऊ, इसलिये कभी कभार घर की पूजा वगैरहा में बैठ जाता हूँ, भले ही दिमाग कंही और हो।उस समय भी मै धर्म निभा रहा होता हूँ, एक बेटे/पति/पिता का धर्म। मेरी नजर मे कर्म ही धर्म है। इन्सान अगर अपने कर्म ठीक ढंग से करे वही सबसे बड़ा उपकार होगा मानव जाति पर।धर्म हमे रास्ता दिखाने के लिये होता है ना कि हमारा रास्ता रोकने के लिये । यदि धर्म के नाम पर कोई भी चीज मेरी जीवनशैली मे रोड़े अटकाती है मै उसे हटा दूंगा, हमेशा हमेशा के लिये। एक बात और कहना चाहूँगा, धर्म कभी गलत नही होता, ना धर्मग्रन्थों मे लिखी बात गलत होती है, हमेशा उस बात को आप तक पहुँचाने वाले गलत होते है।धर्मग्रन्थों मे लिखी बात उस समय के हिसाब से एकदम सही होंगी, लेकिन यदि वर्तमान काल मे वो बाते व्यवहारिक नही है तो उन्हे छोड दिया जाना चाहिए, यूं बेड़ी की तरह धर्मग्रन्थों मे लिखी एक एक बात का अनुसरण करना सही नही है।
जाते जाते गालिब की एक गजल जगजीत सिंह के स्वर में
मै ना हिन्दू ना मुसलमान…..मुझे जीने दो
दोस्ती है मेरा ईमान मुझे जीने दो… (यहाँ सुने)
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