आइये हम आपको नहाने की महत्ता बतायें, नहाने की बात पर याद आया, कि अभी पिछले दिनो अपने ठेलुआ जी, गूगल टाक पर चहक गये, इनके बारे मे मशहूर है कि ये बहुत आलसी इन्सान है, ये मै नही फुरसतिया जी कहते है, (ठेलुआ जी आपको जो भी गालिया लानते भेजनी हो वो फुरसतिया जी के पास भेजे, हाँ लाजिस्टिक सपोर्ट के लिये हमसे सम्पर्क किया जा सकता है।) खैर बात हो रही थी, ठेलुआ जी की, बोले “यार नहाने जाना है”
हमने छूटते ही पूछा “यार! तुम इन सब चक्करो मे कब से पड़ गये? तुम तो वैसे ही बहुत साफ़ सुथरे दिखते हो, नहाने की क्या जरूरत है?” लोगों को नहाने के मामले पर सेन्टी करने के लिये यही उपाय बेस्ट रहता है, आप बस इतना बोल दो, बाकी तो फ़िर तो अगला बोलेगा। स्कूल कालेज टाइम मे इस वाक्य को हम लोग कई प्रकार से प्रयोग कर लेते है गुस्सा दिलाना हो तो “तुम तो वैसे ही गन्दे हो, नहा के भी क्या उखाड़ लोगे?” या फ़िर “तुम तो हमेशा ही साफ़ सुथरे दिखते हो, अभी पिछले रविवार को ही तो नहाये थे, आज क्या जरुरत आन पड़ी” वगैरहा वगैरहा।
ठलुआ नरेश, बहुत ही भारी मन से बोले “नही यार! आज तो नहाना ही पड़ेगा, मन्दिर जाना है, जिस दिन मन्दिर जाना होता है, उस दिन नहाना जरूरी होता है. अगर नही नहाये तो, घर मे बहुत बवाल हो जायेगा” हम समझ गये बेचारे ठलुआ नरेश के पर ऊपर से नहाने के लिये बहुत प्रेशर है और बेचारे कुछ कह भी नही पा रहे है। हम समझ गये कि अपने ठेलुआ नरेश के साथ ज्यादती हो बहुत हो रही है, वो भी अमरीका की सरजमीं पर। देखा जाय तो ये इनके मानवाधिकारो का शोषण हो रहा है,आखिर नहाना या न नहाना तो व्यक्तिगत आजादी का अहम हिस्सा है, है कि नही? हमे आवाज उठानी चाहिये। लेकिन वो तो तभी उठायेंगे ना, जब ठेलुआ जी एग्री होंगे. उनके जवाब का इन्तजार है। ठलुवा नरेश आप कमेन्ट मे अपनी राय जरुर लिखना। ठलुआ तुम संघर्ष करो…हम तुम्हारे साथ हैं।
खैर हम तो अपनी बात कर रहे थे, बेचारे ठेलुआ जी की सुना तो मन भर आया, इसलिये यहाँ चांप दिये।बचपन मे हम बहुत कम नहाते थे, ऐसा नही कि बाथरूम मे नही जाते थे, जाते थे, पूरा पूरा आधा घन्टा बाथरूम मे बिताते थे। इस आधे घन्टे मे से पच्चीस मिनट सोचने मे लगा देते थे कि पानी डालूँ या ना डालूँ…डालू या ना डालूँ. फ़िर अगर (ध्यान दीजियेगा, अगर शब्द पर ज्यादा जोर है) नहाने का मूड हुआ तो पाँच मिनट मे फ़टाफ़ट नहाकर बाहर निकल आते औरा यदि मूड नही बना तो फ़िर बाल्टी गिराकर वापस, बाल थोड़े से गीले करते हुए टहलते हुए बाहर आ जाते। बाल्टी का पानी गिराने मे इतनी एक्स्पर्टीज थी कि अच्छे से अच्छा भी नही समझ पाता। किसी को हवा नही लगती कि हम क्या गुल खिला रहे थे, काफ़ी दिन तक तो लोग समझते रहे कि हम रोज नहाते है, एक दिन माताजी ताड़ गयी(ये भी मेरी गलती की वजह से हुआ, क्योंकि मैने अपने “नहाने के सिद्दान्त” के गुर अपने चचेरे भाई टिल्लू को कान मे बताये थे। वो भी इस वादे के साथ को किसी को नही बतायेगा। लेकिन टिल्लू, वो तो पूरा का पूरा आल इन्डिया रेडियो, हर जगह हमारे नहाने के सिद्दान्त गा आया.) अब फ़िर क्या था, माताजी के हाथ से झापड़ खाने का नायाब मौका मिला। अब अगली बार नहाने से पहले मेरे चेहरे और शरीर पर जगह जगह निशान लगा दिये जाते, जैसे फ़ौज मे नक्शों पर निशान लगाकर समझाया जाता है। फ़िर हमे नहाने के लिये भेजा जाता, वापस आकर मेरे को उन निशानो का वैरीफ़िकेशन होता। और निशान मौजूद रहने पर फ़िर वही मार कुटाई।अपने फूल जैसे कोमल बच्चों के साथ ऐसा कोई करता है क्या? खैर कुछ दिनो तक तो ये सिलसिला ठीक चला, यानि कि शराफ़त से नहाने का इन्तजाम, लेकिन बाद मे फ़िर वही ढर्रा रहा यानि कि नहाकर वापस आने पर भी वे निशान तो वंही दिखे साथ मे उस हिस्से की मैल भी वैसे की वैसे दिखी।फ़िर क्या था, हमारा बाथरुम मे नहाना बन्द, सबके सामने चबूतरे पर नहाना पड़ता था.(चबूतरे की डेफ़नीशन, फ़ुरसतिया से पूछियेगा) और फ़िर क्या था, मोहल्ले के सारे बच्चे हमारी जमकर चोक लेते थे. और हम सकुचाये और शरमाये से अंगोछा लपेटे नहाने की कोशिश करते।
लेकिन बैरी जमाना, उसे ये भी मन्जूर नही था, लानते पड़े हमारे चचेरे भाई को , जो हमारे नहाने के प्रसंग का लाइव ब्राडकास्ट करता था, कई दिनो तक तो हम चुप रहे, और शराफ़त से ये गम सहते रहे, लेकिन जब नही सहा गया तो हमने अपने चचेरे भाई टिल्लू को सबक सिखाने की सोची. हमने टिल्लू के नहाने के पानी की बाल्टी में खुजली वाला लोशन मिलाना चालू कर दिया(लोशन गोपाल टाकीज के सामने, फ़ुटपाथ पर एक बन्जारा बेचता था,हमने टका टका पैसा पैसा जोड़ कर, पेट काट काट कर, पूरे सवा दो रूपये मे लोशन खरीदा था) बस फ़िर क्या था, टिल्लू नहाता और खुजाता।हमेशा कम्प्लेन्ट करता कि पानी मे चीटियाँ है, चाची हमेशा उसको डाँटती. एक दिन लगे हाथो हमने चाची को नायाब सुझाव दिया कि क्यों नही टिल्लू हमारे साथ चबूतरे पर नहा लेता, वहाँ पर चीटियां नही होती. चाची के एग्री होते ही टिल्लू की क्या बिसात कि कुछ नखरे दिखाए।बस फ़िर क्या था, आ गया ऊँट पहाड़ के नीचे, टिल्लू जब नहाने बैठता तो वानर सेना, उसका अंगोछा लेकर भाग जाती। फ़िर रह जाता टिल्लू “राम तेरी गंगा मैली” वाले पोज मे। सारी वानर सेना उसे नंगू नंगू कहकर चिढाती और वो भैं भैं करके रोता। बहुत मिन्नते करने पर ही उसका अंगोछा वापस किया जाता।
नहाने की बात से याद आया, अक्सर जुलाई अगस्त के महीने मे कई गंगा स्नान पड़ते है, सो सुबह सुबह चार बजे हम सबको रिक्शों पर बिठवा कर सरसैया घाट रवाना कर दिया जाता, जहाँ सचमुच मे नहाना पड़ता था। हाँ वहाँ एक फ़ायदा था, साबुन वगैरहा नही लगाना पड़ता था।
बचपन मे हमने कुछ सूत्र(“ना नहाने के सिद्दान्त”) बनाये थे, नहाने के ऊपर, अब बचपन तो निकल गया, सुत्र रह गये, आप भी नजर डाल लीजिये:
- नहाते का समय अक्सर वो चुनिये, जब घर के बड़े बुजुर्ग अपने अपने कामो मे व्यस्त हो, जैसे माता जी पूजा वगैरहा में.
- गुसलखाने मे वक्त गुजारना सीखिये, कोई जरूरी नही कि आप नहाये, लेकिन वहाँ बैठिये जरूर
- अक्सर बीमार होने का बहाना कीजिये…बुखार सही तरीका है, अगर शरीर को गरम करना हो तो बगल मे प्याज दबाकर रात को सो जाइये, सुबह बाडी टेम्परेचर मनमाफ़िक मिलेगा
- मौसम पर नजर रखिये…बारिश का इन्तजार करिये
- अक्सर साबुन को नाली से बहा दीजिये, आखिर कितने साबुनो की बलि दी जा सकती है, एक ना एक दिन तो साबुन लगाने से बचेंगे|
- कंकड़ स्नान(जिसमे साबुन ना लगाना पड़े) का भरपूर समर्थन कीजिये।
- खड़े रहकर बाल्टी को अपनी ऊँचाई तक उठाइये और धीरे धीरे पीठ के पीछे की तरफ़ पानी को फ़ैलाना शुरु कीजिये
- गुसलखाने से बाहन निकलने से पहले ये जरुर देख लें कि आपके बाल गीले है कि नही, नही है तो कर लीजिये।
- अक्सर साबुनों की बुराई करिये और कोई ऐसा साबुन डिमान्ड करिये जो आसपास ना मिलता हो।
आपके नहाने के प्रति क्या अनुभव है, बताइयेगा जरुर।
Leave a Reply