मुझे याद है बचपन मे मेरे दादाजी और पिताजी, मुझे पाकिस्तान से विस्थापित होने की कहानी सुनाते थे, कैसे वे लोग वहाँ पर जमींदारी करते हुए अचानक एक दिन अपने ही देश मे शरणार्थी बन गए। उन्हे उन्ही लोगों ने अपनी जमीन से जुदा कर दिया जो हम-प्याला हम-निवाला थे। जिन्होने अपने और पड़ोसी के बच्चों मे कभी फर्क नही किया, उन्हे अचानक पड़ोसी की जाति और भाषा, दोस्ती से पहले दिखाई देने लगी। जिन्होने हमेशा इन्सानियत को ही धर्म माना उन्हे अचानक हिन्दू और मुसलमान दिखाई देने लगा। जिन्होने हमेशा न्याय का साथ दिया, अब वो तलवार लेकर अन्याय करने निकला। किसलिए? सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म के नाम पर वो भी राजनीतिक पार्टियों के भड़काने के बाद। जिस जमीं को अपने खून पसीने से सींचा, उसी से दूर कर दिए गए। हो सकता कि फिर एक जमीन का नया टुकडा तो मिल जाए, मगर वो खोई मिट्टी की सौंधी खुशबु कहाँ से लायेंगे जो बचपन से जेहन के हर कोने में बसी थी। विभाजन की ऐसी हजारो दास्ताने जो हमारे रोंगटे खड़े कर देंगी। ये तो रही देश के विभाजन के समय की बात, लेकिन आजाद भारत मे जो घटित हुआ इसकी भी दास्तान सुनिए।
आजाद भारत मे भारत भले ही भाषा और संस्कृति के नाम पर अलग राज्यों और प्रांतो मे बँटा हुआ हो, लेकिन ये बँटवारा महज प्रशासनिक नजरिए से है। देश तो एक ही है ना। लेकिन अपने ही देश मे ही शरणार्थी होने का क्या दर्द होता है ये आपको कोई कश्मीरी पंडित ही बता सकता है। उसका दर्द कोई और नही समझ सकता। अपनी मिट्टी से जुदा होने का गम क्या होता है, वही बता सकता है। आजकल के हालत देखकर दिल फिर उदास है। आज फिर से वही सवाल कौंध रहा है, हम आखिर किस तरफ़ जा रहे है? असम मे आतंकवादियों द्वारा गैर-असमी हिन्दी-भाषियों की हत्या किए जाने पर यह विचार उठा कि क्या हम क्षेत्रियता असहिष्णुता की तरफ़ बढ रहे है, क्या हम बंगाली, पंजाबी, असमी, मराठी या गुजराती है, भारतीय नही। क्या हम एकता का दम भरने का सिर्फ़ ढोंग करते है?
मराठी नेता एक दिन उठकर आमचि मुम्बई का आहवान करते है, देखते ही देखते लोगों का गुस्सा आसमान छूने लगता है, लोग अन्य राज्यों से आए लोगों को नफ़रत की नज़र से देखने लगते है और उनकी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाते है। ऐसे ही एक दिन धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर मे मस्जिदों से अजान की जगह आग उगलने वाले नारे निकलते है, कश्मीरी पंडितो (हिन्दुओं) को २४ घन्टे के अन्दर कश्मीर छोड़कर जाने को कहा जाता है। उनकी बहू-बेटियों के साथ दुर्व्यवहार होता है। लगभग वैसा ही कुछ मंजर असम मे होता है, जहाँ बिना किसी चेतावनी के , बिला-वजह बिहारी मजदूरों को गोलियों से भून दिया जाता है, अघोषित ऐलान हो जाता है कि असम सिर्फ़ असमियों का है, गैर असमी इसे छोड़कर चले जाएं। इनका कसूर सिर्फ़ इतना होता है कि ये बेचारे गरीब मजदूर अपने राज्य मे काम-धंधे ना होने की वजह से पड़ोसी राज्यों की तरफ़ रुख करते है। इसमे गलत क्या है, अपने ही देश मे ही तो है, कौन सा बांग्लादेशियों की तरह पड़ोसी देश का अतिक्रमण कर रहे है। क्या है ये सब? क्या हम भारतीयता का प्रदर्शन कर रहे है या फिर हम सोवियत रुस तरह विघटन की तरफ़ बढ रहे है। आज ये सवाल हम सबके सामने है, हम सभी को इस पर विचार करना हो, खास तौर पर उन्हे जो अपने को भारतीय ना समझकर असमी…. वगैरहा समझते है।
ये आलम किसी और देश का नही, अपने भारत का है, जिसकी एकता और अखंडता पर हमे गर्व करते है। सियासी दरिंदों के यह मोहरे आखिर कब तक और किन किन वजहों से मौत और बंटवारे का यह तांडव खेलते रहेंगे। कब इनको यह समझ में आ पयेगा कि जिन निर्दोषों को तुम अपनी हवस का शिकार बना रहे हो, वो तुम्हारे लिये तो मात्र एक अदद संख्या का इजाफा है। मगर किसी का पूरा संसार, किसी का पति,किसी का पिता, किसी की माँ, किसी का बेटा है-कितने अरमानों की वो इकलौती आस है जिसे तुमने सिर्फ़ एक जुनूनवश मार दिया। कितने माथों का सिंदूर पौंछ दिया, कितने सरों से उनका साया हटा दिया, कितने बूढों की लाठी छीन ली, किसलिये-सिर्फ़ एक जमीन के टुकडे की खातिर और वो भी जो तुम्हारा नहीं हैं और न ही तुम्हारा होगा। तुम मराठी हो, सिर्फ़ इसलिये कि तुम महाराष्ट्र मे पैदा हुये या तुम असमी हो, सिर्फ़ इसलिये कि तुम असम मे पैदा हुये-मगर यह कैसे भूल गये कि तुम इन सबसे उपर भारतीय हो, क्योंकि तुम भारत में पैदा हुये। यह तो अजब बात हो गई कि छोटी बात बडी बात पर भारी पड़ रही है. क्यों इतना विवेक खो रहे हो कि इतनी छोटी सी बात तक तुम्हें समझ नहीं आ रही है।
पोस्ट की लम्बाई कुछ लम्बी हुई जा रही है इसलिए असम की समस्या पर अगली पोस्ट मे विस्तार से बात करते है, आज के लिए सिर्फ़ इतना ही। आपकी क्या राय है इस बारे में?
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