अभी कल ही किसी भड़ासी ब्लॉगर ने एक भूली बिसरी गज़ल की फरमाइश कर दी। उन्होने ये गज़ल कभी लखनऊ रेडियो पर सुनी थी। बड़े बैचेन थे बेचारे, फिर इन्होने रेडियो, और लखनऊ स्टेशन का नाम लेकर हमको सेंटी कर दिया और गुजरे जमाने की यादें, ताजा कर दी। तब हम भी रेडियो के बड़े फैन हुआ करते थे, इसलिए हमने भी अपनी यादों को टटोला तो पाया, कुछ ऐसी गज़ल सुनी तो थी। इंटरनैट पर ढूंढा तो नही मिली, फिर रोमन मे लिखकर, शब्दों को हेरफेर करके, दोबारा सर्च मारा तो एक फोरम मे ये लापता गज़ल मिली (अब पूरी है या नही, मेरे को नही पता), इसलिए ये गज़ल समर्पित है उस भड़ासी ब्लॉगर को, जिसने इस गज़ल की फरमाइश की थी।
कोई दीवार से लग के बैठा रहा
और भरता रहा सिसकियां रात भर
आज की रात भी चाँद आया नही
राह तकती रही खिड़कियां रात भर
गम जलाता किसे कोई बस्ती ना थी
मेरे चारो तरफ़ मेरे दिल के सिवा
मेरे ही दिल पे आ आ के गिरती रही
मेरे एहसास की बिजलियां रात भर
दायरे शोख रंगो के बनते रहे
याद आती रही वो कलाई हमें
दिल के सुनसान आंगन मे बजती रही
रेशमी शरबती चूड़ियां रात भर
कोई दीवार से लग के बैठा रहा
और भरता रहा सिसकियां रात भर
आज की रात भी चाँद आया नही
राह तकती रही खिड़कियां रात भर
-अनाम शायर
किसी साथी को इसका आडियो लिंक मिल जाए तो हमे बता दे, ताकि उसे यहाँ पर चिपका कर, इस पोस्ट को पूरा कर लिया जाए। इस गज़ल के बारे मे बाकी जानकारी (गायक,शायर के बारे मे जानकारी भी सादर आमंत्रित है।)
अपडेट, अब आप ये गज़ल सुन भी सकते है, इसके लिए भाई नीरज रोहिल्ला का बहुत बहुत धन्यवाद। इसके गज़ल के फनकार है, अशोक खोसला और हाँ अभी तक शायर का नाम पता नही चला है।
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