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आइए, आज कुछ ज्ञान की बातें करते हैं। एक समय की बात है, एक साधु नदी के किनारे बैठे थे—आँखें बंद, एकदम शांत। तभी एक मुसाफिर उनके पास आया और पूछा, “बाबा, यहाँ क्या कर रहे हो?”

बाबा ने धीरे से कहा, “इंतजार कर रहा हूँ कि जब यह पूरी नदी बह जाए, तब इसे पार करूँगा।”

मुसाफिर थोड़ा हैरान हुआ और बोला, “बाबा, आप कैसी बातें कर रहे हो? अगर आप पूरे जल के बहने का इंतज़ार करोगे, तो कभी नदी पार नहीं कर पाओगे।”

बाबा मुस्कुरा कर बोले, “यही तो मैं समझाना चाहता हूँ, बेटा। लोग ज़िंदगी भर सोचते रहते हैं कि जब सारी ज़िम्मेदारियाँ खत्म हो जाएंगी, तब वे जीयेंगे, तब दुनिया देखेंगे। पर ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होतीं।”

यह सुनकर मुसाफिर को मानो सच्चाई का आईना दिख गया। सच पूछो तो, हम में से कितने लोग यही सोचते रहते हैं कि जब काम ख़त्म हो जाए, नौकरी लग जाए, शादी हो जाए, बच्चे बड़े हो जाएं, तब घूमने निकलेंगे। पर जब तक हम इस इंतज़ार में रहते हैं, कितने खूबसूरत लम्हे हमारे हाथ से फिसल जाते हैं।

अब मेरी ही बात कर लो। जेबखर्च से बचा-बचाकर पहली बार नैनीताल गए, फिर हर साल दोस्तों के साथ चंदा करके कभी गोवा, कभी केरल और कभी कश्मीर। सेमिनारों और कोर्सों के बहाने दक्षिण घूम लिया, नौकरी के इंटरव्यू देते-देते बाकी का देश देख लिया। प्रोजेक्ट मिले तो विदेशों में, और वहाँ भी काम के साथ-साथ घूमना हुआ। कहने का मतलब यह है कि वक़्त नहीं रुकता, हम अपनी इच्छाओं को रोकते हैं। एक घुमक्कड़ के तौर पर मैंने यही सीखा है—सफ़र शुरू करने का सही समय कभी नहीं आता। यह हम पर निर्भर है कि कब अपना झोला उठाएँ और निकल पड़ें। हर यात्रा अपने साथ नई कहानी और नई सीख लेकर आती है।

जब मैंने पहली बार अपने बजट से बाहर (पूरे 6 से 8 महीने का जेब खर्च) की यात्रा की, तो थोड़ा डर भी लगा कि क्या यह सही फैसला था? पर दोस्तों, जब पहली बार हिमालय की पहाड़ियों में चाय की चुस्की ली, बाली के समुद्र में पैर डुबाए, बनारस के घाटों पर धुनी रमाई, यूरोप की गलियों में इतिहास को टटोला, और पहाड़ों पर स्कीइंग की—तब समझ में आया कि यही छोटे-छोटे पल असली ज़िंदगी हैं।

विदेशों में लोग 11 महीने जम कर कमाते और 1 महीना घूमते हैं। हमारे देश में, मैंने कई ऐसे लोगों को देखा है, जो सोचते हैं कि रिटायरमेंट के बाद घूमेंगे, तब जी भर के ज़िंदगी का आनंद लेंगे। मेरे दादाजी हमेशा कहा करते थे, “जब दांत होते हैं, तब काजू नहीं मिलता; जब काजू मिलता है, तब दांत नहीं बचते।” सच मानो, ज़िंदगी किसी का इंतज़ार नहीं करती। नदियाँ तो बहती रहती हैं, और अगर तुम किनारे पर खड़े होकर बहाव का इंतज़ार करोगे, तो सफर कभी शुरू ही नहीं होगा।

तो आज से ठान लो—घूमना-फिरना, नई जगहों को देखना सिर्फ रिटायरमेंट या फुर्सत के दिनों के लिए नहीं है। यह ज़िंदगी का एक हिस्सा है, जैसे सांस लेना। हम सभी की अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियाँ हैं, बजट है, तो कोई जरूरी नहीं कि विदेश ही घूमें। शुरुआत अपने शहर, प्रदेश, और देश से भी हो सकती है।

जब मैं यूरोप के छोटे गाँवों में एक स्थानीय कैफे में बैठकर लोगों से बातें करता हूँ, या ऋषिकेश के आश्रम में आत्मचिंतन करता हूँ, या राजस्थान के रेगिस्तान में बैठकर लोक संगीत सुनता हूँ—तब महसूस करता हूँ कि सफर में हम सिर्फ जगहें नहीं देखते, हम खुद को भी खोजते हैं। हर यात्रा हमें कुछ सिखाती है, कुछ नया दिखाती है। तो इंतज़ार मत करो कि सारी ज़िम्मेदारियाँ खत्म हो जाएं। ज़िंदगी की इस नदी में कूदो और बहते हुए सफर का आनंद लो। क्योंकि सफर जितना लंबा और अनजान होगा, उतना ही रोमांचक और यादगार होगा।

जाते-जाते एक राज़ की बात: वो बाबा वाली कहानी याद है न? वह बिल्कुल असली थी, और वह मुसाफिर मैं ही था। हालाँकि बाबा का ज्ञान कुछ और संदर्भ में था, लेकिन मैंने उसे अपने तरीके से लिया।

तो, ऐसे ही मिलते हैं किसी अनजाने सफर पर।

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Photo : USA 2016

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