महफिल ए मजरूह

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह

इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह

वो तो हीं कहीं और मगर दिल के आस पास
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह

सीधी है राह-ए-शौक़ पर यूं ही कभी कभी
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह

अब जा कि कुछ खुला हुनर-ए-नाखून-ए-जुनून
ज़ख्म़-ए-जिगर हुए लब-ओ-स्र्ख्स़ार की तरह

‘मजरूह’ लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह

——————————————–

हम को जुनूं क्या सिखलाते हो हम थे परेशां तुमसे ज़ियादा
चाक किए हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबां तुमसे ज़ियादा

चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिऱ्फ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहारां तुमसे ज़ियादा

जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शामों की कतर लो
ज़ख्म़ों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिरागा़ं तुमसे ज़ियादा

हम भी हमेशा क़त्ल हुए और तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझे हमको हुआ है जान का नुकसां तुमसे ज़ियादा

ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो ‘मजरूह’ मगर हम
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िन्दां तुमसे ज़ियादा
——————————————–
निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबां ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने

मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने

हयात लग़़्जिशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूं ख़ुदा जाने

वो तक रहे थे हमीं हंस के पी गए आंसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने

ये आग और नहीं दिल की आग है नादां
चिराग हो कि न हो जल बुझेंगे परवाने

फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए ‘मजरूह’
शराब एक है बदले हुए है पैमाने

——————————————–
ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ां था दूर थी सियाही भी
दम के दम में अफ़साना थी मेरी तबाही भी

इल्तफ़ात समझूं या बेस्र्ख़ी कहूं इसको
रह गई ख़लिश बन कर उसकी कमनिगाही भी

याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख्त़गीरी पर
अश्क भर के उठी थी मेरी बेगुनाही भी

शमा भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का
मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी

गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा ‘मजरूह’
मस्जिदों में की जाके मैं ने दादख्व़ाही भी
——————————————–
मुझे सहल हो गयीं मंज़िलें वो हवा के स्र्ख़ भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह मे जल गए

वो लजाए मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए

वही बात जो वो न कर सके मेरे शेर-ओ-नग्म्ा़ा में आ गई
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दाह-ए-शराब मे ढल गए

उन्हें कब के रास भी आ चुके तेरी बज़्म-ए-नाज़ के हादसे
अब उठे कि तेरी नज़र फिरे जो गिरे थे गिर के संभल गए

मेरे काम आ गयीं आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें
बढ़ीं इस क़दर मेरी मंज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए

2 responses to “महफिल ए मजरूह”

  1. zithromax used for

    zithromax used for

  2. cheap penlac

    cheap penlac

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *