पिछली पोस्ट मे हमने बात की थी बचपन के खुराफाती शौंक डाक टिकटों के संग्रह की। वैसे तो डाक टिकटों के संग्रह मे अच्छे खासे पैसे खर्च हो चुके थे, लेकिन वो बचपन ही क्या जो नयी नयी चीजें ना ट्राई करे। बस जनाब थोड़े ही दिनो मे हमारा डाकटिकटों से जी ऊब गया। हम अब ज्यादा शरीफ हो गए थे, अब टिल्लू की डाकटिकटों से चोरी छिपे अदलाबदली भी बन्द कर दी थी। अब दोस्तों मे भी डाकटिकटों को लेकर कोई खास उत्साह नही था। क्योंकि अब हम कुछ नए शौंक ट्राई करने वाले थे।
माचिस की डिब्बियों के कवर
जी हाँ जैसे बच्चे डाकटिकट संग्रह करते है, हम माचिस की डिब्बियों के कवर संग्रह करने लगे थे। इसके दो कारण थे, अव्वल इसमे कोई इन्वेस्टमेंट नही था, कवर सड़कों पर पड़े मिल जाते थे। दूसरा इसमे फर्स्ट डे कार्ड का झंझट भी नही था। बस जनाब नाई से लेकर पहरेदार, फेरीवाले से लेकर ड्राइवर। हर वो व्यक्ति जो धूम्रपान करता था, हमारा शिकार था। हम माचिस की डिब्बी के ऊपर का कवर बड़ी सफाई से गायब कर देते थे। किसी को कोई शिकायत भी नही थी, लोगों को माचिस की डिब्बी से काम था, ना कि उसके कवर से। हमारी देखा देखी मे मोहल्ले के बाकी सभी बच्चों ने भी ये शौंक अपनाया।
वो कहते है ना, बिना मेहनत के प्रसिद्दि नही मिलती। हम बड़ी शान से नयी नयी माचिस डिब्बी के कवर दिखाते, अपना कॉलर (जो अक्सर नही होता था) बड़े गर्व से ऊपर करते। अलबत्ता इसके लिए मोहल्ले के हर कूड़ेदान की खाक छानी गयी थी। इस संग्रह मे एक ही परेशानी हुआ करती थी शहर मे माचिस के लिमिटेड ब्रांड ही मिला करते, इसलिए हमलोगो ने इसका इलाज ढूंढ लिया, हम चुन्नीगंज बस अड्डे जाते थे, वहाँ पर दूसरे शहरों से आयी बसों के आसपास कई नये नये माचिस के
कवर मिल जाते। लेकिन ये शौंक भी ज्यादा दिन नही चला। अगले शौंक मे बारी थी कन्चों की।
कंचे खेलने का शौंक
ये शौंक भी अजीब था। कंचे खरीदने और जीतने का जुनून इस कदर सवार था कि समय का पता ही नही चलता था। कंचे भी अलग अलग साइजों मे आते थे, टिइयां, सफेदा, डम्पोला और ना जाने क्या क्या देसी नाम रखे गए थे। अक्सर कोई एक कंचा लकी कंचा हुआ करता था। लेकिन अजीब बात ये थी कि ये लकी कंचा रोज बदल जाता था। गर्मिया शुरु होते ही इस शौंक को पर लग जाते। हम अपनी झोले जैसी निक्कर, बहती नाक के साथ कंचे खेलने निकल पड़ते। इस खेल मे लड़ाई बहुत होती थी, क्योंकि अक्सर लोग बेईमानी पर उतर आते थे। हाथापाई तो बहुत कॉमन बात हुआ करती थी। हमने इस शौंक के द्वारा अपना जुकाम सभी साथी खिलाड़ियों को ट्रांसफर किया था। इस शौंक ने हमे मोहल्ले की कई नालियों मे हाथ डालने के लिए प्रेरित किया था। हमारे मोहल्ले के मेनहोल की सफाई वाले कर्मचारी महीने महीने आते थे, वे जब भी मेनहोल की सफाई करते तो हमारे लिए ढेरों कंचे निकालते। लेकिन ये शौंक भी ज्यादा दिन नही टिक सका।
शतरंज खेलने का शौंक
जब हम सभी बच्चे कंचो मे कुछ अधिक ही इन्वाल्व होने लगे तो बड़े बूढो ने हमे शतरंज मे उलझाया। वैसे तो शतरंज बूढो का खेल था, वे लोग चबूतरों पर अक्सर ये खेलते रहते। लेकिन जिस दिन हमे इसकी लत लगी, उस दिन सब कुछ बदल गया। गर्मिया शुरु होते ही चबूतरों पर शतरंज की बाजिया बिछने लगती। आपस मे लोग शर्त लगाकर खेलने लगे। शतरंज खेलने का शौंक काफी दिन तक चला। ये शौंक इतना परवान चढा कि हम मोहल्ला, डिस्ट्रिक्ट, यूनीवर्सिटी लेवेल तक खेले। पहले हम इंडियन स्टाइल मे खेलते थे, इसमे नियम कायदे कानून सब देसी हुआ करते थे, ये करो, वो ना करो, वगैरहा वगैरहा। लेकिन बाद मे हम इंटरनैशनल स्टाइल पर शिफ्ट हो गए। एक दिन के के शुक्ला जी, जो ज्वालादेवी स्कूल के पास रहते थे, और चैस क्लब चलाते थे, एक दिन हमे खेलते हुए देखे, बोले तुम हमारे क्लब मे खेलो। उन्होने मुझे शतरंज के इतने गुर सिखाए कि हम चैम्पियन बन गए, शहर मे हमारी रैंकिग तीसरे नम्बर तक पहुँची। आज भी हम शतरंज खेलते है, ये अलग बात है कि अब हम टूर्नामेंट नही खेलते। क्या कहा, मेरे से शतरंज खेलना है, तो आओ ना आईबिबो (Ibibo) पर खेलो, हम अक्सर उधर खेलते है।
तो भाई ये तो रहे हमारे खुराफाती शौंक, आपके भी बचपन के कुछ शौंक रहे होंगे। तो आप टिप्पणी के माध्यम से अपने शौंकों के बारे मे बताओ।
टिप्पणी अपडेट :
पिछली बार ईस्वामी की टिप्पणी मे था,
हिंदुस्तान में घरों के बाहर मेलबाक्स? इहां तो डाकिये दरवाजे के नीचे से चिट्ठी सरका देते थे.
उस जमाने मे मेलबॉक्स? अरे हाँ भाई, हमारे इलाके मे प्रिंटिग प्रेस, प्राइमरी स्कूल भर भर के हुआ करते थे। कुछ न्यूजएजेंसी के ऑफिस भी हुआ करते थे। एक ग्रंथम गाइड छपती थी(है), उसका ऑफिस भी उधर ही हुआ करता था। ये सभी पढे लिखे लोग थे, सबने अपने अपने मेलबॉक्स ऑफिस के बाहर लगाए हुए थे। इनकी देखादेखी मे (जैसा कि अक्सर होता है) कुछ पढेलिखे परिवारों ने भी देसी तरीके से बना हुआ मेलबाक्स घर के बाहर लगाना शुरु किया था। बाकी दरवाजे के नीचे से सरकायी हुई चिट्ठियां तो हम लकड़ी की डंडी से वापस बाहर सरका लिया करते थे।
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