आज यानि 13 फरवरी 2012 को युनेस्को द्वारा पहली बार विश्व रेडियो दिवस मनाया जा रहा है। रेडियो से हमारी भी ढेर सारी पुरानी यादें जुड़ी है, लीजिये पेश है, मेरी कुछ पुरानी यादें, चलिये इसी बहाने हम रेडियो को याद कर लेते हैं।
पुराने जमाने मे जिन लोगों के पास रेडियो हुआ करता था, वो अपने घर के बाहर एक जाली वाला तार टाँगा करते थे, अब ये बैटर रिसेप्शन के लिये था या फिर दिखावा, मेरे को नही पता. लेकिन जिनके घर की बालकनी या आंगन मे जाली वाला तार टंगा रहता था, उनको लोग बड़ा सम्मान देते थे और उनकी तरफ बहुत इज्जत की निगाह से देखा करते थे. लोग बाग भी अपने रेडियो का दिखावा करने मे पीछे कहाँ रहते थे. मुझे याद है हमारे घर मे भी एक रेडियो हुआ करता था, जिस पर सिर्फ और सिर्फ दादाजी का हक हुआ करता था. मजाल है जो कोई दूसरा हाथ भी लगा दे, दादाजी अपनी छड़ी से कुटाई कर दिया करते थे. अक्सर दादा दादी मे रेडियो को लेकर बवाल हुआ करता था. दादाजी अपने रेडियो का दिखावा करने के लिये अक्सर लोगो को घर बुलाते,पहले चाय नाश्ता और फिर खाना तक खिलवाते थे. लोग बाग भी समाचार सुनने का बहाना बनाकर आते, चाय नाश्ता करते, भले ही रेडियों मे शास्त्रीय गायन या कर्नाटक संगीत सभा चल रही होती, बाकायदा डटे रहते और खाना डकारकर ही जाते….मुफ्त का खाना कौन छोड़ता है भला? खैर जमाना बदला, रेडियो गया, ट्रान्जिस्टर आये. अब लोग बाग अपने साथ ट्रान्जिस्टर लेकर चलने लगे, जिसको देखो कान से लगाकर सुनता था, क्या सुनता था? ये तो उसको भी नही पता. लोगबाग दिशा मैदान को जाते तो ट्रान्जिस्टर ले जाना ना भूलते, लता के गीत हों या रफी के नगमे या फिर इन्दु वाही के समाचार, बाकायदा पूरा पूरा सुनते. घरों मे पंगे बढ गये थे, लोगबाग लैट्रिन मे भी ट्रान्जिस्टर ले जाते और घन्टों वंही बैठे रहते. हमारे यहाँ भी काफी पंगे होते, लेकिन मसला दूसरा था. पिताजी एक ट्रांजिस्टर ले आये थे और उससे दादाजी के रेडियों की पूछ कम हो गयी थी. दादाजी रोज़ाना ट्रांजिस्टर की कमिया गिनाते. अक्सर ट्रांजिस्टर को अकेला पाकर अपनी छड़ी से धुनाई करते. अब उसका क्या बिगड़ने वाला था. खैर वो जमाना भी गया. दादाजी भी जन्नतनशीं हुए और रेडियों भी अपनी कब्रगाह मे चला गया. अब जमाना आया टेलीविजन का.
बात उन दिनो की है, जब टेलीविजन भी नही आया था.मै गर्मियों की छुट्टी मे अपनी बुआ के यहाँ उल्हास नगर(मुम्बई के पास) गया था और पहली बार टेलीविजन को देखा. बहुत आश्चर्य चकित हो गया कि कैसे एक बक्से के अन्दर बैठे लोग हमसे बात करते है.हमारे बुआ के लड़कों ने भी हमारी नासमझी का फायदा उठाया और ना जाने क्या क्या गप्पे हाँकी, और डेली डेली हमको गप्पों का नया डोज पिलाते रहे. खैर हम एक अच्छे बच्चे की तरह से सारी गप्पे झेलते रहे और अपने दिमाग मे सहेजते रहे, क्यो? अरे भाई कानपुर जाकर सारी गप्पों मे नमक मिर्च लगाकर अपने दोस्तों को जो सुनाना था. खैर जनाब! हम कानपुर पहुँचे और अपने दोस्तो यारों को कहानी सुनाई, सुक्खी तो बिखर गया, बोला ये तो हो ही नही सकता कि रोजाना कोई छत पर लगे एक डन्डे मे लगे छेदों मे से आपके घर मे घुस आये और एक बक्से मे बैठकर आपसे बाते करने लगे. धीरू और दूसरों ने भी हाँ मे हाँ मिलाई. लेकिन हम देख चुके थे, इसलिये टस से मस ना हुए, काफी झगड़ा हुआ,लड़ाईयाँ हुई, हम लोग गुटों मे बँटे, फिर भी लोग मानने को तैयार ही नही हुए. हमने भी समझाना छोड़ दिया और सबकुछ वक्त पर छोड़ दिया गया. धीरे धीरे समय बदला और टीवी ने पाँव पसारे. लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र बना. मोहल्ले मे पहला टीवी हमारे घर पर लगा, मोहल्ले के लड़कों ने टीवी के मसले पर हमारी सारी गप्पों को तवज्जो देनी शुरु कर दी थी.
अब लोगों की बालकनी से जाली वाली तारे हटनी लगी और उनकी जगह ली छतों पर बड़े बड़े टेलीविजन के एन्टीना ने. फिर भी मोहल्ले मे इक्का दुक्का एन्टीना ही दिखते थे. हम लोग छत पर जाकर इन्टिना गिनने का खेल खेलते. लोगो का रूतबा एन्टिना से जाना जाता, जिसका एन्टीना ज्यादा ऊँचा, उसकी उतनी ज्यादा हैंकड़ी. वर्माजी का सारा टाइम तो छत पर ये देखने मे लग जाता था कि उनका एन्टीना बगल वाले शर्मा जी के एन्टीना से नीचा ना रहे. कई बार तो इस चक्कर मे ही वर्माजी एन्टीना समेत छत से टपके थे. हम लोगो को पतंग उड़ाने मे दिक्कतो का सामना करना पड़ता था, अपनी छत से पतंग उड़ सके तो शर्मा जी के एन्टिने से अटकती, वहाँ से बचो तो वर्मा जी के एन्टिने मे पतंग अटक जाती थी, ना जाने कितनी पतंगे शहीद हुई, अब आमिर खान को स्टोरी सुनाये तो वो शायद पिक्चर बना दे, इस पर. कुल मिलाकर वानर सेना को परेशानी आती थी.
अब लोगों का लाइफस्टाइल बदल रहा था. अब लोगो की रविवार की शामें घर के अन्दर ही बीता करती..क्यों? अरे भई सन्डे को फीचर फिल्म जो आती थी. हमारे टीवी की कहानी भी सुन लीजिये…..हमारे घर भी टीवी का पदार्पण हुआ, टीवी का स्थापन किया गया,बाकायदा पूजा पाठ और नारियल तक फोड़ा गया. छोटे बच्चों जिसमे हम भी शामिल थे, को बाकायदा ताकीद की गयी कि टेलीविजन के आसपास भी ना फटकें, वरना टांगे तोड़कर दुछत्ती(जिस सज्जन को दुछ्त्ती का मतलब ना समझ आये वो फुरसतिया जी से सवाल पूछे ) पर रख दी जायेंगी. टेलीविजन और उसमे आने वाले प्रोग्रामों के खिलाफ बोलना, बेअदबी और बदतमीजी समझी जाती थी. मेरा चचेरा भाई काफी एडवेन्चरस था, सो उसने टेलीविजन के बटनो से छेड़छाड़ की, जिससे चैनल का रिसेप्शन खराब हुआ, टीवी वाले इन्जीनियर अंकल को बुलाना पड़ा, क्योंकि टीवी के बटन वगैरहा छेड़कर चाचाजी कोई रिस्क नही लेना चाहते थे, खैर अंकल आये, दो मिनट का काम दो घन्टे मे किया, जिसमे से एक घन्टा अन्ठावन मिनट तो ये समझाने मे लगा दिये कि टीवी कोई मामूली चीज नही है, छेड़छाड़ मत किया करे, इसबीच दो चार बार चाय नाश्ता डकार गये सो अलग.चाचाजी ने टीवी मे छेड़खानी करने वाले की खोज के लिये एक कमेटी बनाई, कमेटी को विश्वस्त सूत्रों(यानि मै)से पता चला कि चचेरे भाई ने ये नामाकूल हरकत की थी और नतीजतन चचेरे भाई की बहुत जबरदस्त धुनाई हुए, सच पूछो तो दिल को बहुत सकुन मिला, क्योंकि हमेशा उसके पंगो की वजह से खांमखा मै ही पिटता रहता था.ये एक सबक था, हम सबके लिये उसके बाद से हम लोग टेलीविजन से कट लिये,ठीक वैसे जैसे स्कूल मे दिये होमवर्क से कटे हुए थे
अब चाचाजी की पूरी की पूरी शामें टेलीविजन के सामने निकलने लगी, चाहे चौपाल हो या कामगार सभा, चाचाजी सब कुछ देखते और टेलीविजन तभी बन्द होता जब रात्रि विचार बिन्दु का वक्त आता. चाचाजी भारी मन से टीवी बन्द करते, टीवी का शटर बन्द करते,उस पर कपड़ा चढाते……और उसके बाद ही डिनर करते और इस बीच चाची भिनभिनाती रहती, लेकिन कुछ कह नही पाती, क्योंकि चाचाजी टेलीविजन के खिलाफ कुछ भी सुनना पसन्द नही करते थे.अब चाचाजी का एक नया शगल शुरु हो गया था, दादाजी की तरह लोगों को पकड़ पकड़ लाना और टेलीविजन के प्रोग्राम दिखाना, आफ कोर्स चाय नाश्ता तो पैकेज डील मे शामिल था. हाँ टेलीविजन की आवाज कम ज्यादा करने की जिम्मेदार अभी भी चाचाजी पर ही थी और रिमोट कन्ट्रोल? ये किस चिड़िया का नाम है? उस जमाने मे रिमोट कन्ट्रोल नही हुआ करता था.लोगबाग भी आते, टीवी की तारीफ करते,चाय नाश्ता डकारते और निकल लेते.
इसबीच बदकिस्मती से लखनऊ दूरदर्शन वालों ने बच्चों के लिये भी एक प्रोग्राम देना शुरु कर दिया, नतीजतन, मोहल्ले के सारे बच्चों को पकड़ा जाता, गिनती होती(प्रोग्राम के शुरु मे और आखिरी मे दोनो बार)और टेलीविजन के आगे बिठा दिया जाता और कहा जाता कि चुपचाप बैठकर टेलीविजन देखो. अब देखे तो क्या देखें कुछ पल्ले पड़ता तब ना? दूरदर्शन वाले भी पता नही कहाँ कहाँ से पकड़ पकड़ कर लोगो से टेलीविजन प्रोग्राम करवाते थे, जो काफी समय तो अपनी तारीफ मे बिताते, कुछ बचता तो बच्चों वही पकी पकाई घिसी पिटी कविताये वगैरहा पढते, हम लोग झेले भी तो कैसे? लेकिन चाचाजी के डन्डे का डर था, हम लोग चुपचाप टेलीविजन देखते, ये बात और थी कि सबसे आगे बैठेने वाले धीरू को चिकोटी काटते रहते, जिससे वो चिल्लाता और चाचाजी के डन्डे का शिकार होता. धीरे धीरे धीरू ने चिकोटी पर रियेक्शन करना बन्द कर दिया, क्यों? अमां यार! चिकोटी का दर्द, डन्डे के दर्द से काफी कम होता है, इसलिये. रविवार की शाम, घर की महिलाओं के लिये खासी परेशानी भरी होती, क्योंकि रविवार को फीचर फिल्म आती और चाचाजी पूरे मोहल्ले पहले से ही निमंत्रण दे आते, लगे हाथो आने वाली फिल्म की तारीफ करके लोगो मे जिज्ञासा भर आते. घर लौटते समय टीवी देखने आने वाले लोगो के लिये लइया,चना चबैला और मुंगफली का इन्तजाम करना ना भूलते.
तय समय पर सभी लोग लइया चना और मुंगफली लेकर फिल्म देखते, फिल्म के दृश्यानुसार हँसते रोते. हँसते समय ज्यादा मुँगफली खाते, और रोते समय चादरों को खराब करते.मुझे याद है बसन्तु की अम्मा अपने बच्चे को सुस्सु और पाटी भी टेलीविजन के सामने कराई थी, अब टेलीविजन के लिये ये दिन भी देखना पड़ेगा, किसने सोचा था…. कुछ लोग फिल्म खत्म होने के बाद भी डिनर खाने के लिये लटके रहते, बहाना होता, समाचार देखने का. घर की महिलायें, मनाती कि हफ्ते मे से रविवार को निकाल दिया जाना चाहिये, क्यों? अरे यार! बाहर के लोग फिल्म देखे और घर की महिलाये चाय नाश्ता बनाती रहें ये कहाँ का इन्साफ है? फिल्म के बाद घर कूड़ाघर बन जाता. कैसे? अमां यार, मुंगफली के छिलके लोग अपने साथ ले जाते क्या? लेकिन दूरदर्शन वालो को इसका कहाँ इल्म था, उन्होने तो हफ्ते मे दो दो फिल्मे देनी शुरु कर दी, वृहस्पतिवार का चित्रहार और सोमवार का मद्रासी और अन्यभाषा के गानों चित्रमाला सो अलग. अब टीवी देखने आने वाले लोगो की डिमान्ड भी बढ रही थी, लोग दुहाई देते, वर्मा जी तो टीवी दिखाने के लिये बुलाते है और नाश्ते मे हलवा भी खिलाते है. चाचाजी की भृकुटि तन जाती थी, नतीजतन भाग भाग कर जलेबी वगैरहा हमे लानी पड़ती थी. अब कब तक झेलते ये सब?
अब पानी सर से ऊपर गुजर रहा था, सो चाचाजी को छोड़कर सारे लोगों ने प्लानिंग बनाई की किसी तरह से टीवी को खराब कर दिया जाय, टीवी वाले अंकल को सैट किया गया, उन्होने झूठी मूठी बताया कि एक स्पेयर पार्ट खराब हो गया है, आने मे एक महीना लगेगा…… तब कंही जाकर एक महीने के लिये टीवी खराब रहा था……सारे परिवार ने, सिवाय चाचाजी को छोड़कर, चैन की सांस ली. इसबीच चाचाजी क्या करते रहे? अरे यार! शहर भर के टेलीविजन की दुकानों मे स्पेयर पार्ट लिये लिये ढूंढते रहे, अब उनको स्पेयर पार्ट तो तब ही मिलता ना जब वो टेलीविजन का होता, हम लोगो ने उनको पुराने खराब रेडियों का स्पेयर पार्ट टिकाया था.
धीरे धीरे वो जमाना भी बीता. अब जमाना आया वीडियो का…………..इसकी कहानी फिर कभी…अभी के लिये सिर्फ इतना ही, आप भी अपने संस्मरण लिखना मत भूलियेगा.
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