मैं ख़याल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मेरा अक्स है, पस-ए-आईना कोई और है
मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूं, तो किसी के हऱ्फ-ए-दुआ में हूं
मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है
कभी लौट आएं तो न पूछना, सिऱ्फ देखना बड़े गौ़र से
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुई कि ये रास्ता कोेई और है
अजब ऐतबार-ब-ऐतबारी के दर्मियां है ज़िन्दगी
मैं करीब हूं किसी और के, मुझे जानता कोई और है
वही मुंसिफ़ों की रिवायतें, वही फ़ैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था, पर मेरी सज़ा कोई और है
तेरी रौशनी मेरी ख़ा ो-ख़ाल से मुख्त़लिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है
-सलीम कौसर
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