आजकल पूरे उत्तर भारत मे रामलीलाओं का दौर चल रहा है। हमे भी अपने बचपन की याद हो आयी। पिछली यादों मे हमने आपको मोहल्ले के रावण-दहन की बातें बतायी थी, आइए इस बार हम अपने मोहल्ले की रामलीलाओं की बात करते है। वैसे तो बचपन मे हमे सिर्फ़ मई जून की छुट्टियों वाले महीने ही अच्छे लगते थे। जुलाई तो हम किसी तरह से पार कर लेते थे, लेकिन अगस्त का महीना आते ही सभी पढने वाले विद्यार्थियों के चेहरे पर रौनक लौट आती थी। क्यों? अरे भई छुट्टियों का सीजन जो शुरु होता था। पंद्रह अगस्त, झूलेलाल महोत्सव, पाँच सितम्बर, गुड़िया, नाग पंचमी, दो अक्टूबर, दशहरा से लेकर दीपावली तक छुट्टियों की भरमार थी। इन सभी मे दशहरे और दीपावली का विशेष महत्व हुआ करता था। दशहरे की तैयारिया काफी समय पहले से शुरु हो जाया करती थी। तैयारियाँ? और क्या। हम सभी वानर-सेना के लोग चंदा करके कलक्टरगंज से चने, लईया और मुंगफली खरीदकर लाते थे, फिर ठठेरे के यहाँ बैठकर उसको भुंजवाते थे। पुराने बोरे और शालें इकट्ठा की जाती थी, फिर गुट बनाकर हम लोग रामलीला देखने जाते थे।अब रामलीला हो और लड़ाई ना हो, ऐसा कैसे हो सकता था। रामलीला देखने हम समूह मे जाते थे, अपना बोरा बिछाकर, सबसे आगे की जगह घेरी जाती थी। झगड़े की दो वजहें होती, पहली बैठने की जगह को लेकर और दूसरा लीला के बीच मे उठने को लेकर। अक्सर अगल बगल वालों से मुंहाचाई होती, बात गाली गलौच तक भी पहुँचती और कभी कभी तो हाथापाई भी होती। बड़े बुजुर्ग बीच बचाव करा देते, लेकिन खुन्नस बनी रहती। जिसका निबटारा, हम लोग दीवाली होली तक करते। लेकिन मजा बहुत आता था।
दशहरे के मैदान का नज़ारा ही कुछ और होता था। मेला शाम को सात बजे शुरु होता था, लेकिन मजाल है कि हम लोग चार/पाँच बजे से एक मिनट भी लेट हो जाएं। चार बजे भी इसलिए कि स्कूल से एक बजे लौटते थे (जिस दिन हम स्कूल गोल नही करते थे।) अक्सर सुबह नहाकर नही जाते थे। इसलिए नहाने का आधा घंटा भी इसमे जोड़ लिया जाए। नहाने मे आधा घंटा? अरे हाँ यार, पूरे पूरे तीस मिनट, जिसमे से पच्चीस मिनट ये डिसाइड करने मे निकाल देते थे कि पानी डाला जाए कि नही, फिर झट से पाँच मिनट मे पानी डालकर बाथरुम से निकल आते थे। नहाने के बारे मे हमारे पवित्र विचार विस्तृत रुप मे आप स्नान महत्ता वाले लेख मे देख सकते है। खैर मुद्दे से ना भटका जाए,बात दशहरे की हो रही थी। खैर नहाने के बाद, खाना वगैरहा खाकर,थोड़ा पढने पुढने का नाटक करने मे दो घन्टे लग जाते थे। पढने मे मन लगता ही कहाँ था, दिमाग तो मेला ग्राउंड पर था। मेला ग्राउंड पर भी सभी दुकाने एक साथ नही लगती थी। सारे तम्बू एक एक करके तनते थे। तम्बू कनाते कैसे लगती है, ये हमसे अच्छा कौन जान सकता है, स्कूल गोल कर कर के हम सारी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखते थे। मजाल है कि धीरू और टिल्लू को हमसे ज्यादा जानकारी हो। स्कूल टीचर भी जानती थी, इस सीजन मे इस लड़के से पढाई होने वाली नही।
उधर हम स्कूल गोल करके, सीधे मेला ग्राउंड मे पहुँचते थे। आलम ये था कि मेला ग्राउंड के सारे बाशिंदे बाकायदा हमारे चेहरे से वाकिफ़ या कहो दुखी हो चुके थे। पुतले बनाने वाले मुन्नन खां, आतिशबाजी वाले जमाल भाई, सोडावाटर वाला गुड्डू, फोटोग्राफर वाले भैया(नाम भूल गया),झूले वाले हमारे खास दोस्तों मे शामिल हो चुके थे। ये लोग सुबह सवेरे अपनी दुकान जमाते तो हम उधर पहुँच जाते। हमारा लंच ये लोग मिलकर खा जाते, बदले मे हमे पुतले बनाने का ज्ञान और झूला झुलाया जाता। अब वैसे भी लंच मे शौंक किसको था, हमारा पूरा ध्यान तो पुतले बनाने के कला सीखने मे लगा था। चलिए मेला ग्राउंड की बहुत बात हो गयी, अब रामलीला पर नज़र डाली जाए।
रामलीला अक्सर एक महीने पहले शुरु हो जाती। पहले के कुछ दिनो तक लोग बाग इकट्ठा नही होते थे। इसलिए बाकायदा मुनादी करा कर, प्रतिदिन के खेला के बारे मे बताया जाता था। शुरु के कुछ दिनो मे कुछ मनचले और वेले लोग ही इकट्ठा होते थे, इसलिए मेला प्रबंधन समिति वाले बड़ी चालाकी से रामजन्म की खुशियों या राजा दशरथ के दरबार के बहाने फिल्मी गानो पर नचनिया का डांस करवाते थे। डांस काफी थिरकन भरा होता था, नचनिया बनने वाला टप्पू अपने शरीर से ऐसे ऐसे अंगो को हिलाता था कि बुजुर्ग से बुजुर्गवार भी सांसे थामे, टकटकी लगाकर उसका डांस देखते। धीरे धीरे, कुछ दिनो मे जैसे जैसे भीड़ जुटनी शुरु हो जाती तो वैसे वैसे नचनियां का डान्स भी कम होता जाता और रामलीला मंचन करने वालों का फोकस कथा कहने मे शुरु हो जाता।
सबसे ज्यादा भीड़ जुटती थी, परशुरामी वाले दिन। इसी दिन रावण-बाणासुर का संवाद होता फिर लक्ष्मण-परशुराम का ढेर सारा वाकयुद्द। सबकुछ तयशुदा तरीके से होता। सभी को पता था कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन सभी लोग पूरी भक्ति-भावना से रस लेकर परशुरामी देखने जरुर जुटते, पूरी रात ये मंचन होता था। परशुराम बनने वाले बन्दे की हैल्थ अच्छी होती, उसकी जाँघे भी भरी भरी होती। अब चूंकि कपड़े भी उसने नाममात्र के पहने होते थे। महिलाओं वाले सेक्शन मे परशुराम की हैल्थ को लेकर काफी चर्चाए हुआ करती थी। वैसे भी परशुराम बनने वाले त्रिपाठी जी,पेशे से तो टीचर थे, लेकिन साथी महिला टीचरों मे काफी पापुलर या कहिए कु-पापुलर थे। अक्सर स्कूल में उनके बारे मे तरह तरह की अफवाहें…….खैर छोडिए हमे क्या। हम तो रामलीला का बात कर रहे है, त्रिपाठी की रासलीला थोड़े ही। (अब देखना शुकुल, इस त्रिपाठी लीला को अधूरा छोड़ने का बहुत बुरा मानेगा, इसे कहते है बुढापे के रसिया शौंक)
क्या आप बता सकते है कि रामलीला मे कौन सा पात्र सबसे ज्यादा कमाई करता था? सबसे ज्यादा पैसे नचनिया को मिलते थे। नचनिया बनने वाला टप्पू, पेशे से रसोइया था, लेनिन पार्क के पास एक ढाबे मे काम करता था। डांस अच्छा करता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे का था। मुम्बई मे हीरो बनने के लिए घर से भाग कर आया था। अब मुम्बई तक तो नही पहँच सका, क्योंकि बिना टिकट कानपुर स्टेशन पर पकड़ा गया। किस्मत उसे लेनिन पार्क वाले ढाबे में ले आयी, बस तब से टप्पू रसोइया कम वेटर का काम देखा करता था। उसके ढाबे पर कुछ बैंड वाले भी आया करते थे। बस उनकी दोस्ती मे शादी बरातों मे डांस करने का भी काम करने लगा, फिर देखते ही देखते डांसर से नचनिया कैसे बना, कोई नही जानता। लेकिन टप्पू खुश था, दशहरे के सीजन मे वो नचनिया का काम करके काफी पैसे कमा लेता था। कानपुर शहर मे लगभग सत्तर से ज्यादा रामलीला समितियां थी सभी समितियों के आयोजक टप्पू के आगे पीछे घूमते, क्योंकि टप्पू के डांस से टीआरपी बढती थी। खैर टप्पू अपने जीवन से खुश था, तो हमे क्या टेंशन।
रामलीला मे राम का रोल करने वाले बन्दे को धूम्रपान का बड़ा शौंक था, शौंक क्या कहो, पक्का लती था। पान, तम्बाकू, मैनपूरी, बीड़ी, सिगरेट, गाली गलौच कौन सी लत नही थी उसे। पर्दे के पीछे तो मैने उसे अक्सर बीड़ी/सिगरेट में ही देखा था। कभी कभी मै सोचता था कि ये बन्दा इतने सालों से रामलीला में श्रीराम का रोल कर रहा है, इस रोल को करते करते, यदि श्रीराम का एक प्रतिशत भी अपने अन्दर ला सकता तो इसका जीवन सुधर जाता। यदि ऐसा नही हो सका नही तो क्या ये रामलीला की गलती है या बन्दे मे ही कुछ खराबी है, मुझे इस सवाल का कभी भी जवाब नही मिल सका।
रामलीला समिति के मंचन को देखते देखते हम ऊब चुके थे तो हमने भी अपने मोहल्ले मे बाल रामलीला मंचन का आयोजन किया। सुषमा टीचर ने हमको सीता का रोल दिया। मरता क्या ना करता, करना पड़ा। दरअसल हम सुषमा टीचर के सहायक निर्देशक भी थे फिर सीता के हिस्से मे बहुत कम संवाद आते है, इसलिए मुझे सीता का रोल दिया गया। कभी कभी तो मुझे भी ये बात बहुत चुभती थी कि रामायण मे सीता के हिस्से मे इतने कम संवाद क्यों थे। अब इस विषय पर बहस करना तुलसीदास की आत्मा को कष्ट देना होगा, इसलिए इस पर बहस दूसरे ब्लॉगर के जिम्मे।
सुषमा टीचर के अनुसार हमे रामलीला को तीन घंटे की लीला मे समेटना था इसलिए संक्षिप्त रुप से रामायण का मंचन किया था। बाकी सब तो ठीक था। लेकिन रावण का पात्र निभाने वाला बन्दा बहुत ऐंठ रहा था। हमने भी उसको सीता हरण वाले दिन सबक सिखाने का निर्णय लिया। धोती पहने साधु का भेष धरे रावण ने जैसे ही सीता (यानि मुझे) उठाया, हमने उसकी पीठ पर चढे चढे ही उसके पेट मे गुदगुदी कर दी। उसने अचकचा कर हमे नीचे गिरा दिया, लेकिन इस आपाधापी मे उसकी धोती खुल गयी। सभी ने इस सीन को बहुत इंज्वाय किया। आज भी लोग मोहल्ले की रामलीला भले ही भूल गए हो, लेकिन इस सीन की बात आज भी लोगों को याद है। एक और कांड हुआ था, सीता की अग्नि परीक्षा वाले सीन मे हमे दो तख्तों के बीच मे नीचे गद्दे पर कूदना था। रिहर्सल मे हम कई कई बार गद्दे पर कूद कर मजे ले चुके थे। यहाँ तक सब ठीक था लेकिन ऐन मंचन वाले दिन टिल्लू और धीरू ने बदतमीजी की और नीचे से गद्दा हटा कर सिर्फ़ चादर बिछा दी। हम गद्दा समझकर जोर लगाकर कूदे। बहुत जोर की, सटीक जगह पर चोट लगी थी। उसका दर्द आज भी हमे याद है।
आपकी भी बचपन की रामलीला/दशहरे की यादे होंगी, तो चूकिए मत कह डालिए, मौका भी है, दस्तूर भी है। अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी द्वारा जरुर दीजिएगा।
Leave a Reply