अभी कुछ दिन पहले ही मै किसी म्यूजिक चैनल पर गाने देख रहा था… अचानक एक रिमिक्स गाना प्रसारित हुआ, ले के पहला पहला प्यार , ये सुरीला गाना शमशाद बेगम,रफी साहब और आशाजी ने गाया था, वैसे सुनने मे रिमिक्स भी बुरा नही लगा… लेकिन जैसे ही मैने गाना देखा…..ये क्या… इतने प्यारे गाने की बाकायदा मां-बहन की गयी थी…एक लड़की जिसने नाम मात्र के कपड़े पहने रखे थे, बड़े ही भौंडे और बेहूदे तरीके से डांस, नही बस बेढब तरीके से बदन हिला रही थी., साथ ही साथ उसकी आंखे अश्लील इशारे भी कर रही थी…….इसे डांस कम अंग प्रदर्शन कहना उचित होगा. मै समझ नही सका वो क्या दिखाना चाहती थी और छुपाना क्या ,इससे अच्छा तो यही होता कि जो पहने थी वो भी उतार देती. यह सब देखकर मैने अपना सर पीट लिया, और तुरन्त ही चैनल बदल दिया.लेकिन क्या चैनल बदलना ही सही सालयूशन है, क्या दूसरे चैनलो पर यह सब नही दिखाया जा रहा है? यकीनन वहाँ पर भी लगभग यही सब कुछ है, कब तक चैनेल बदलेंगे? कब तक हम सच्चाई से मुंह मोड़ेंगे.
अब सवाल यह उठता है, क्या देह ही सबकुछ है? हमारी पूछो तो नही….आज भी प्यार,रिश्ते,संवेदना,इमोशन्स और फीलिन्गस का स्थान देह और सेक्स से पहले है, लेकिन इन मीडिया वालों को कौन समझाये, इनको तो अपना सामान बिकने से मतलब है, भाड़ मे जाये बाकी सारी बातें, सामाजिक मंच वाले इन सबके लिये टीवी,फिल्मो और मीडिया को इसका दोषी ठहराता है…..फिल्म वाले बोलते है, सिनेमा समाज का आईना है, नयी नयी एक्ट्रेस बोलती है, जब कुछ दिखाने को है तो क्यों ना दिखाऊ,मेरा जिस्म है, मेरी मर्जी, हर दूसरा स्टार अपने कपड़े उतारने को तैयार बैठा है, अब टीवी चैनल वालों से पूछो तो बोलते है, प्रोग्राम हम थोड़े ही बनाते है, जो प्रोडयूसर बनाते है वही दिखाते है, प्रोडयूसर बोलते है जो समाज मे घटित होता है उसी से प्रेरित होकर प्रोग्राम बनाते है, समाज से बात करों तो पानी पी पीकर टीवी वालों को गालिया देते है, अब मामला तो फिर वहीं पहुँच जाता है, जहाँ से शुरू हुआ था, हर आदमी अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है, दरअसल सेक्स के प्रति लोगो के सोच और नजरिये मे कुछ तो फर्क आया है, लेकिन वो फर्क बहुत ही छोटे वर्ग मे आया है और यह फर्क बहुत ही मामूली है, लेकिन मीडिया और फिल्म वालो ने इस मामूली फर्क या सोंच को बहुत बड़ा बदलाव मान लिया और बड़ा चढाकर दिखाने के लिये दे दनादन सीरियल और फिल्मे और वीडियो उतार दी मैदान मे, कुछ हिट हुई, कुछ पिटी, समाजसेवी फिल्मे देख देख कर मजे लेते रहे,आपस मे चिकोली करते रहे और सिनेमाहाल के बाहर निकल कर फिल्म वालों को गालिया देते रहे.
दरअसल गलती इनकी भी नही है, सेक्स के प्रति हमारे समाज की राय काफी पाखंडी किस्म की है, हम खुद तो यह सब देखना चाहते है, चटखारे ले ले कर देखते है, देख देख कर मन ही मन आनन्दित होते है, फैन्टिसाइज करते है, लेकिन कोई दूसरा देखता है तो हमे बुरा लगता है, हम खूब हाय हाय करते है, हो हल्ला मचाते है, सामाजिक पतन की दुहायी देते है, बोलते है इसे बैन करो, कुछ शर्म करो, थोड़ा परिष्कृत ढंग से दिखाना चाहिये… बच्चो के बिगड़ने का डर है, वगैरहा वगैरहा……… मन ही मन हमारे अन्दर बैठा समाज सुधारक जाग उठता है, ऐसा क्यों है? क्यो नही हम समाज मे आने वाले बदलाव के लिये रास्ता बनाते, उसे अपनी सीमाये खुद तय करने का मौका देते. हम क्यों नही, नयी पीढी को सोचने देते कि वो क्या देखना चाहती है, क्या नही. वैसे भी सैटेलाइट टीवी और इन्टरनेट के युग मे भारत हो या अमरीका, हर जगह मामला एक जैसा ही है,चाहे हम लाख जतन कर ले, हम इस बदलाव को रोक नही सकते. और यह कहना कि हम पश्चिमी संस्कृति की तरफ जा रहे है, नकल कर रहे है, तो पक्का है कि कहीं ना कहीँ हमारी संस्कृति ने गैप छोड़ा होगा जो नयी पीढी दूसरी तरफ जा रही है. थोड़ा समय लगेगा.. हम जो पुरानी पीढी का प्रतिनिधित्व करते है, कुछ दिन भिनभिनायेंगे, चिढेंगे, चैनल बदलेंगे, बच्चो को रोकेंगे, फिर कुछ दिन बाद हमे इन सब चीजो की आदत पड़ ही जायेगी. मै इस रियेक्शन को नये बदलाव के प्रति प्रारम्भिक रियेक्शन मानता हूँ, तब तक नयी पीढी भी कुछ मैच्योर हो जायेंगी और अपना भला बुरा सोचने समझने लायक हो जायेगी.दरअसल, देह और सेक्स से रिलेटेड विचार, धर्म,संस्कृति और देश के हिसाब से बदलते रहते है, जो चीज भारत या साउथ एशिया मे अश्लील मानी जाती है, वो डेनमार्क और दूसरे स्कन्डनेवियन देशो मे सामान्य मानी जाती है,यूरोप और अमरीका मे वैचारिक स्वतन्त्रता, अब जबकि इन्टरनेट के युग मे देशो की दूरिया तो मिट गयी है, लेकिन विचारो की दूरिया मिटना अभी बाकी है.
एक और बात… यह सब नैतिकता वगैरहा की बाते बस हम मध्यमवर्ग वालो को ही क्यों दिखायी पड़ती है, क्योंकि उच्चवर्ग वाला तो किसी की परवाह नही करता, यह वर्ग वही करता है जो उसकी मर्जी होती है, और रही बात निम्न वर्ग वालों की उसको तो इन सब बातो पर सोचने के लिये समय ही नही होता, रोजी रोटी के जुगाड़ मे ही सारा दिन निकल जाता है. इन दोनो ही वर्गो मे सेक्स को लेकर काफी खुलापन है या कहे कि काफी उन्मुक्तता है,बस हम ही लोग फंस के रह जाते है, समाज,जाति और सोसाइटी के पचड़े मे, अब जब दो बहुसंख्यक वर्गो के लोग अपनी मनमर्जी चला रहे है तो हम अल्पसंख्यक वर्ग इस पर सोच विचार करके भी क्या उखाड़ लेगें. क्या हम कभी उच्च और निम्न वर्ग की जीवनशैली को बदल पायेंगे? नही…….तो फिर हम कौन होते है उनकी तरफ से फैसला करने वाले?
रही बात बच्चो पर इन सबका प्रभाव पड़ने की, यह एक चिन्तनीय विषय है, मेरा तो यह मानना है कि हम अपने बच्चो को बचपन से ही इन सब बातों के बारे मे थोड़ा थोड़ा बताना शुरू कर दे, सेक्स शिक्षा अनिवार्य कर दे, ताकि उनके मन मे किसी प्रकार की उत्कंथा ना रहे.फिर भी भौंडेपन के प्रचलन पर कुछ तो रोक लगानी ही पड़ेगी, अब इस गाने की ही मिसाल ले, यह गाना जिस अंग्रेजी गाने से प्रभावित होकर बनाया गया था, उसमे सिंगर इतनी बुरी नही लगती, जितनी हिन्दी गाने मे लगती है.
पुराने जमाने मे हमे याद है, पहले पहल सेक्स के बारे मे हमारी जानकारी काफी कम थी, बचपन से ही समझाया गया था कि सेक्स एक वर्जित शब्द है और शादीशुदा लोग ही इसके बारे मे जानते है, कभी कोई इस बारे मे बात करना नही चाहता था. फिर भी क्या कोई हमारी जानकारी पर रोक लगा सका? अपने दिल पर हाथ रखकर बताईये, क्या आपको अपनी शादी से पहले सेक्स के बारे मे जानकारी नही थी? , क्या कभी किसी हीरो/हिरोइन को अपने ख्यालों मे फैंन्टसाइज नही किये थे? , अगर उस समय हम पर रोक नही लग सकी, जब रेसोर्सेस कम थे, तो आज इस पीढी पर क्या लग सकेगी? बस फर्क इतना सा है, तब हम हर वर्जित बात और एक्शन का इजहार, एकान्त मे किया करते थे, आज की पीढी खुले मे करती है.यह तो बस जनरेशन गैप है.
लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है, यदि हम समझते है कि हमारा एक बड़ा वर्ग,इन सबका विरोध कर रहा है, तो हमे इन सब सीरियल,वीडियोस और फिल्मो का त्याग करना पड़ेगा, और इन्हे अपने हाल पर छोड़ देना होगा, कुछ समय बाद जब इन्हे देखने वाले ही नही रहेंगे तो बनाने वाले भी पतली गली से निकल लेंगे..सीधा सीधा डिमान्ड और सप्लाई का फार्मूला है, अगर डिमान्ड गिर जायेगी तो सप्लाई अपने आप कम हो जायेगी………. और कंही यदि ये फिल्मे और सीरियल ज्यादा हिट होते है, तो हमे अपनी सोच पर फिर विचार करना होगा और अपने आपको बदलना होगा और समाज मे होने वाले नये बदलावो को स्वीकार करना होगा कि शायद वक्त का यही तकाजा है. ..फिर हमारे पास दूसरा ही सवाल होगा……क्या समय आ गया है, हमे अपने आपको बदलने का?
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